ख़ुतबा 215

ख़ुदाया, मैं क़ुरैश से इंतेक़ाम पर लेने पर तुझ से मदद का ख़्वास्त गार (इच्छुक) हूँ क्यों कि उन्हो ने मेरी क़राबत व अज़ीज़ दारी के बंधन तोड़ दिये और मेरे ज़र्फ़े (हिम्मत व हौसले) को औंधा कर दिया। और उस के हक़ में कि जिस का मैं सब से ज़्यादा अहल हूँ झगड़ा करने के लिये एका कर लिया और यह कहने लगे कि यह भी हक़ है कि आप इसे ले लें और यह भी हक़ है कि आप को उस से रोक दिया जाये। या तो ग़म व हुज़्न की हालत में सब्र कीजिये या रंज व अंदोह से मर जाईये। मैं ने निगाह दौड़ाई तो मुझे अपने अहले बैत के सिवा न कोई मुआविन नज़र आया और न कोई सीना सीपर और मुईन दिखाई दिया, तो मैं ने उन्हे मौत के मुंह में देने से बुख़्ल किया। आंखों में ख़सो ख़ाशाक था मगर मैं ने चश्म पोशी की, हल्क़ में (ग़म व रंज) के फंदे थे मगर मैं लुआबे दहन (थूक) निगलता रहा और ग़म व ग़ुस्सा पी लेने की वजह से ऐसे हालात पर सब्र किया जो हंज़ल (इन्दराइन) से ज़्यादा तल्ख़ और दिल के लिये छुरियों के कचोकों से ज़ियादा अलम नाक थे।

सैयिद रज़ी फ़रमाते हैं कि हज़रत का यह कलाम एक पहले ख़ुतबे के ज़िम्न में गुज़र चुका है मगर मैं ने फिर इस का इआदा किया है चूँ कि दोनों रिवायतों की लफ़्ज़ों में कुछ फ़र्क़ है।

(इसी ख़ुतबे का एक जुज़ (अंश) यह है जिस में उन लोगों का ज़िक्र है जो आप से लड़ने के लिए बसरा की तरफ़ निकल खड़े हुए थे।)

वह मेरे आमिलों और मुसलमानों के उन ख़ज़ीना दारों पर कि जिस का इख़्तियार मेरे हाथों में था और शहरे (बसरा) के रहने वालों पर कि जो सब के सब मेरे फ़रमा बरदार और मेरी बैअत पर बर क़रार थे, चढ़ दौड़े, यक जहती को दरहम बरहम कर दिया। और मेरे पैरौकारों पर टूट पड़े और उन में से एक गिरोह को ग़द्दारी से क़त्ल कर दांतों को भींच लिया, और उन से तलवारों के साथ टकराये, यहाँ तक कि वह सच्चाई का जामा पहने हुए अल्लाह के हुज़ूर में पहुच गये।

ख़ुतबा 216

(जब आप तलहा और अब्दुर रहमान बिन इताब बिन असीद की तरफ़ से गुज़रे कि जब वह मैदाने जमल में मक़्तूल पड़े थे तो फ़रमाया)

अबू मुहम्मद (तलहा) इस जगह घर बार से दूर पड़ा है। ख़ुदा की क़सम, मैं नही पसंद करता कि क़ुरैश सितारों के नीचे (खुले मैदानों में) मक़्तूल पड़े हों। मैं ने अब्दे मनाफ़ की औलाद से (उन के किये का) बदला ले लिया है। (लेकिन) बनी जुमह के अकाबिर मेरे हाथों से बच निकले हैं। उन्हो ने उस चीज़ की तरफ़ गर्दन उठाई थीं जिन के वह अहल नही थे। चुनांचे उस तक पहुचने से पहले ही उन की गर्दनें तोड़ दी गई।

जंगे जमल में बनी जुमह की एक जमाअत हज़रत आयशा के हमराह थी लेकिन उश जमाअत के सर कर्दा अफ़राद मैदान छोड़ कर भाग गये। इन भागने वालों में से चंद यह हैं:

अब्दुल्लाहुत तवील बिन सफ़वान, यहया बिन हकीम, आमिर बिन मसऊद, अय्यूब बिन हबीब।

ख़ुतबा 217

मोमिन ने अपने अक़्ल को ज़िन्दा रखा और अपने नफ़्स को मार डाला। यहाँ तक कि उस का डील डौल लाग़र और तनो तोश हल्का हो गया उस के लिये भरपूर दरख़्शन्दगियों वाला नूरे हिदायत चमका कि जिस ने उस के सामने रास्ता नुमायां कर दिया और उसे सीधी राह पर ले चला, और मुख़्तलिफ़ दरवाज़े उसे धकेलते हुए सलामती के दरवाज़े और दाइमी क़रार गाह तक ले गये और उस के पांव बदन के टिकाव के साथ अम्न व राहत के मक़ाम पर जम गये। चूं कि उस ने अपने दिल को अमल में लगाए रखा था और अपने परवर दिगार को राज़ी व ख़ुशनूद किया था।

ख़ुतबा 218

(अमीरुल मोमिनीन (अ0) ने आयत, अल हाकुमुत तकासुर हत्ता ज़ुरतुमुल मक़ाबिर (तुम्हे क़ौम क़बीले की कसरत पर इतराने ने ग़ाफ़िल कर दिया यहाँ तक कि तुम ने क़ब्रें देख डाली) की तिलावत करने के बाद फ़रमाया)

देखो तो, इन बोसिदा हड्डियों पर फ़ख़्र करने वालों का मक़सद कितना दूर अज़ अक़्ल है, और यह क़ब्रों पर आने वाले फ़ितने ग़ाफ़िल व बे ख़बर हैं, और यह मुहिम कितनी सख़्त व दुशवार है। उन्हो ने मरने वालों को कैसी कैसी इबरत आमेज़ चीज़ों से ख़ाली समझ लिया और दूर व दराज़ जगह से उन्हे (सरमाय ए इफ़्तेख़ार बनाने के लिये) ले लिया। क्या यह अपने बाप दादाओं की लाशों पर फ़ख़्र करते हैं या हलाक होने वालों की तादाद से अपनी कसरत में इज़ाफ़ा महसूस करते हैं, वह इन जिस्मों को पलटाना चाहते हैं जो बे रूह हो चुके हैं, और उन जुबिशों को लौटाना चाहते हैं, जो थम चुकी हैं। वह सब बे इफ़्तिख़ार बनने से ज़ियादा सामाने इबरत बनने के क़ाबिल हैं।

उन की वजह से इज्ज़ व फ़रोतनी की जगह पर उतरना, इज़्ज़त व सर फ़राज़ी के मक़ाम पर ठहरने से ज़ियादा मुनासिब है। उन्हो ने चौधियाई हुई आंखों से उन्हे देखा और उन से (इबरत लेने की बजाय) जिहालत के गहराव में उतर पड़े। अगर वह उन की सर गुज़श्त को टूटे हुए मकानों और ख़ाली घरों के सहनों से पूछें तो वह कहेगें कि वह गुमराही की हालत में ज़मीन के अंदर चले गये, और तुम बे ख़बरी और जिहालत के आलम में उन के अक़ब में बढ़े जा रहे हो। तुम उन की खोपड़ियों को रौंदते हो और उन के जिस्मों की जगह पर इमारतें खड़ी करना चाहते हो। जिस चीज़ को उन्हो ने छोड़ दिया है, उस में तर रहे हो, और जिसे वह ख़ाली छोड़ कर चले गये हैं, उस में आ बसे हो। और यह दिन भी जो तुम्हारे और उन के दरमियान हैं, तुम पर रो रहे हैं, और नौहा पढ़ रहे हैं। तुम्हारी मंज़िले मुन्तहा पर पहले से पहुच जाने वाले, और तुम्हारे सर चश्मों पर क़ब्ल से वारिद होने वाले वही लोग हैं जिन के लिये इज़्ज़त की मंज़िले तुम्हे और फ़ख़्र व सर बुलंदी की फ़रावानी थी। कुछ ताज दार थे कुछ दूसरे दरजे के बुलंद मंसब, गर अब तो वह बरज़ख़ की गहराईयों में राह पैमा हैं, कि जहां ज़मीन उन पर मुसल्लत कर दी गई है, जिस ने उन का गोश्त रवा किया और लहू चूस लिया है। चुनांचे वह क़ब्र के शिगाफ़ों में नश्व नुमा खो कर जमाद की सूरत में पड़े हैं और यूं नज़रों से ओछल हो गये है कि ढ़ूढ़ने से नही मिलते। न पुर हौल ख़तरात का आना उन्हे ख़ौफ़ ज़दा करता है, न हालात का इंक़ेलाब उन्हे अंदोह नाक बनाता है। न ज़लज़ले की परवाह करते हैं, न रअद की कड़क पर कान धरते हैं। वह ऐसे ग़ायब हैं जिन का इंतेज़ार नही किया जाता, और ऐसे मौजूद हैं कि सामने नही आते। वह मिल जुल कर रहते थे जो अब बिखर गये हैं। उन के वाक़िआत से बे ख़बरी और उन के घरों की ख़ामोशी इमतिदादे ज़माना और दूरिये मंज़िल की वजह से नही, बल्कि उन्हे मौत का ऐसा साग़र पिला दिया गया है कि जिस ने उन की गोयाई छीन कर उन्हे गूंगा बना दिया है। और क़ुव्वते शनवाई (सुनने की शक्ति) सल्ब कर के बहरा कर दिया है। और उन की हरकत व जुंबिश को सुकून व बेहिसी से बदल दिया है, गोया कि वह सरसरी नज़र में यूं दिखाई देते हैं जैसे नींद में लेटे हुए हों। वह ऐसे हम साये हैं जो एक दूसरे से उन्स व मुहब्बत का लगाव नही रखते, और ऐसे दोस्त हैं जो आपस में मिलते मिलाते नहीं। उन के जान पहचान के राब्ते बोसिदा हो चुके हैं, और भाई बंदी के सिलसिले टूट गये हैं। वह एक साथ होते हुए फिर अकेले हैं और दोस्त होते हुए फिर अलायहदा और जुदा है। यह लोग शब हो तो उस की सुबह से बे ख़बर, दिन हो तो उस की शाम से ना आशना है। जिस रात या जिस दिन में उन्हो ने रख़्ते सफ़र बांधा है, वह साअत (घड़ी) उन पर हमेशा और यकसां रहने वाली है। उन्हो ने मंज़िले आख़िरत की हौल नाकियों को इस से भी ज़ियादा हौल नाक पाया जितना उन्हे डर था। और वहां के आसार (लक्षण) को उस से अज़ीम तर (अधिक महान) देखा जितना वह अंदाज़ा लगाते थे। मोमिनों और काफ़िरों की मंज़िलें इंतेहा को जाय बाज़ गश्त (दोज़ख़ व जन्नत) तक फैला दिया गया है। वह काफ़िरों के लिये हर दरजा ख़ौफ़ से बलंद तर और मोमिनों के लिये हर दरजा उम्मीद से बाला तर है। अगर वह बोल सकते होते, जब भी देखी हुई चीज़ों के बयान से उन की ज़बाने गुंग हो जाती। अगरचे उन के निशानात मिट चुके हैं और उन की ख़बरों का सिलसिला मुनक़तअ हो चुका है लेकिन चश्ते बसीरत उन्हे देखती और गोशे अक़्ल व ख़िरद उन की सुनते हैं।

वह बोले.... मगर नुतक़ व कलाम के तरीक़े पर नही, बल्कि उन्हो ने ज़बाने हाल से कहा..... शगुफ़्ता चेहरे बिगड़ गये, नर्म व नाज़ुक बदन मिट्टी में मिल गये और हम ने बोसीदा कफ़न पहन रखा है, और क़ब्र की तंगी ने हमें आजिज़ कर दिया है, ख़ौफ़ व दहशत का एक दूसरे से विरसा पाया है। हमारी ख़ामोश मंज़िले वीरान हो गई, हमारे जिस्म की रअनाइयां मिट गई, हमारी जानी पहचानी हुई सूरतें बदल गई।

इन वहशत कदों में हमारी मुद्दते रहाइश दराज़ हो गई। न बेचैनी से छुटकारा नसीब है, न तंगी से फ़राख़ी हासिल है। अब इस आलम में कि जब कीड़ों की वजह से उन के कान समाअत (श्रवण शक्ति) को खो कर बहरे हो चुके हैं, और उन की आंखें ख़ाक का सुर्मा लगा कर अंदर को धंस चुकी हैं, और उन के मुंह ज़बाने तलाक़त व रवानी दिखने के बाद पारा पारा हो चुकी हैं। और सीनों में दिल चौकन्ना रहने के बाद बे हरकत हो चुके हैं, और उन के एक एक उज़्व (अंग) को इंतेहाई बोसिदगियों ने तबाह कर के बद हैअत बना दिया है, और इस हालत में कि वह (हर मुसीबत सहने के लिये) बिला मुज़ाहेमत आमादा है। उन की तरफ़ आफ़तों का रास्ता हमवार कर दिया है, न कोई हाथ है, जो उन का बचाव करे और न (पसीजने वाले) दिल हैं जो बे चैन हो जायें। अगर तुम अपनी अक़्लों में उन का नक़्शा जमाओ, या यह कि तुम्हारे सामने से उन पर पड़ा हुआ पर्दा हटा दिया जाये तो अलबत्ता तुम उन के दिलों के अंदोह और आंखों में पड़े हुए ख़सो ख़ाशाक को देखोगे कि उन पर शिद्दत व सख़्ती की ऐसी हालत है कि वह बदलती ही नही, और ऐसी मुसीबत व जा काही है कि हटने का नाम नही लेती है, और तुम्हे मालूम होगा कि ज़मीन ने कितने बा वक़ार जिस्मों और दिल फ़रेब रंग रूप वालों को खा लिया, जो रंज की घड़ियों में भी मसर्रत अंगेज़ चेहरों से दिल बहलाते थे। अगर कोई मुसीबत उन पर आ पड़ती थी, तो अपने ऐश की ताज़गियों पर ललचाये रहने, और खेल तफ़रीह पर फ़रेफ़्ता होने की वजह से ख़ुश बख़्तियों के सहारे ढ़ूढ़ते थे। इसी दौरान में वह ग़ाफ़िल व मदहोश करने वाली ज़िन्दगी की छांव में दुनिया को देख देख कर हंस रहे थे। और दुनिया उन्हे देख कर क़हक़हे लगा रही थी, कि अचानक ज़माने ने उन्हे कांटों की तरह रौंद दिया और उन के सारे ज़ोर तोड़ दिये, और क़रीब ही से मौत की नज़रें उन पर पड़ने लगीं, और ऐसा ग़म व अंदोह उन पर तारी हुआ कि जिस से वह आशना न थे, और ऐसे अंदरूनी क़लक़ में मुबतला हुए कि जिस से कभी साबिक़ा न पड़ा था, और इस हालत में कि वह सेहत से बहुत मानूस थे, उन के मरज़ की कमज़ोरियां पैदा हो गई तो अब उन्हो ने उन्ही चीज़ों की तरफ़ रुजू किया। जिन का तबीबों ने आदी बना रखा था, कि गर्मी के ज़ोर को सर्द हवाओं से फ़ुरू किया जाये, और सर्दी को गर्म दवाओं से हटाया जाये। मगर सर्द दवाओं ने गर्मी को बुझाने के बजाय और भड़का दिया, गर्म दवाओं ने ठंडक को हटाने के बजाय उस का जोश और बढ़ा दिया, और न उन तबीअतों में महफ़ूज़ होने वाली चीज़ों से उन के मिज़ाज नुक्त ए ऐतेदाल पर आये। बल्कि उन चीज़ों ने हर उज़्वे माऊफ़ का आज़ार और बढ़ा दिया। यहाँ तक कि चारा गर सुस्त पड़ गये, तीमार दार मायूस हो कर ग़फ़लत बरतने लगे, घर वाले मरज़ की हालत बयान करने से आजिज़ आ गये, और मिज़ाज पुर्सी करने वालों के जवाब में ख़ामोशी इख़्तियार कर ली,  और उस से छुपाते हुए उस अंदोह नाक ख़बर के बारे में इख़्तिलाफ़े राय करने लगे। एक कहने वाला यह कहता था कि इस की हालत जो है सो ज़ाहिर है, और सेहत व तंगदुरुस्ती के पलट आने की उम्मीद दिलाता था, और एक उस की (होने वाली) मौत पर उन्हे सब्र की तल्क़ीन करता था, और इस से पहले गुज़र जाने वालों की मुसीबतें उन्हे याद दिलाता था। इसी असना में कि वह दुनिया से जाने और दोस्तों को छोड़ने के लिये पर तौल रहा था, कि नागाह गुलूगीर फंदों में से एक ऐसा फंदा उस लगा कि उस के होश व हवास पाशान व परेशान हो गये, और ज़बान की तरी ख़ुश्क हो गई, और कितने ही मुब्हम सवालात थे कि जिन के जवाब वह जानता था मगर बयान करने से आजिज़ हो गया, और कितनी ही दिल सोज़ सदायें उस के कान से टकराई कि जिन के सुनने से बहरा हो गया। वह आवाज़ या किसी ऐसे बुज़ुर्ग की होती थी जिस का वह बड़ा ऐहतेराम करता था, या किसी ऐसे ख़ुर्द साल की होती थी कि जिस पर मेहरबान व शफ़ीक़ था। मौत की सख़्तियां इतनी हैं कि मुश्किल है कि दायर ए बयान में आ सकें या अहले दुनिया की अक़्लों के अंदाज़ों पर पूरी उतर सकें।

इस आयत की शाने नुज़ूल यह है कि बनी अब्दे मनाफ़ और बनी सहम माल व दौलत की फ़रावानी और अफ़रादे क़बीला की कसरत पर आपस में तफ़ाख़ुर करने लगे और हर एक अपनी कसरत दिखाने के लिये अपने मुर्दों को भी शुमार करने लगा। जिस पर यह आयत नाज़िल हुई कि तुम्हे माल व औलाद की कसरत ने ग़ाफ़िल कर दिया है। यहां तक कि तुम ने ज़िन्दों के साथ मुर्दों को भी शुमार करना शुरु कर दिया। इस आयत के एक मअनी यह भी कहे गये हैं कि माल व औलाद की फ़रावानी ने तुम्हे ग़ाफ़िल कर दिया है यहां तक कि तुम मर कर क़ब्रों तक पहुच गये। मगर अमीरुल मोमिनीन (अ) के इरशाद से पहले मअनी की ताईद होती है।

मतलब यह है कि जो दिन के वक़्त मरते हैं उन की निगाहो में हमेशा दिन ही रहता है। और जो रात के वक़्त मरते हैं उन के लिये रात का अंधेरा नही छटता। क्यों कि वह ऐसे मक़ाम पर हैं जहां चांद, सूरज की गर्दिश और शबो रोज़ का चक्कर नही होता। इस मज़मून को एक शायर ने इस तरह अदा किया है:

फिर उजाली रात का मंज़र न देखेगा यह दिन। सुबह का जलवा न देखेगी कभी शामे फ़िराक़।

ख़ुतबा 219

(आयते क़ुरआन वह लोग ऐसे हैं जिन्हे तिजार और ख़रीद व फ़रोख़्त (क्रय विक्रय) ज़िकरे इलाही से ग़ाफ़िल नही बनाती, की तिलावत के बाद फ़रमाया)

बेशक अल्लाह सुब्हानहू ने अपनी याद को दिलों की सैक़ल (मंझाईस क़लई) क़रार दिया है, जिस के बाइस वह (अवामिर व नवाही) से बहरा होने के बाद सुनने लगे, और अंधेपन के बाद देखने लगे और दुश्मनी व इनाद (दुष्भावना) के बाद फ़रमां बरदार (आज्ञा कारी) हो गये। यके बाद दीगरे हर अहद और अंबिया से ख़ाली दौर में हज़रत रब्बुल इज़्ज़त के कुछ मख़्सूस बंदे हमेशा मौजूद रहे हैं कि जिन की फ़िक्रो में सर गोशियों की सूरत में (हक़ायक़ व मआरिफ़ का) इल्क़ा करता है, और उन की अक़्लों से इलहामी आवाज़ों के साथ कलाम करता है। चुनांचे उन्हो ने अपनी आंखों, कानों और दिलों में बेदारी के नूर से (हिदायत व बसीरत) के चिराग़ रौशन किये। वह मख़सूस याद रखने (के क़ाबिल) दिनों की याद दिलाते हैं, और उस की जलालत व बुज़ुर्गी से डराते हैं। वह लक़ दक़ सहराओं (विशालकाल जंगलों) में दलीले राह हैं। जो मियाना रवी इख़्तेयार करता है उस के तौर तरीक़े पर तहसीन व आफ़रीन (प्रशंसा एवं प्रोत्साहन) करते हैं, और उसे निजात (मुक्ति) की ख़ुश ख़बरी सुनाते हैं, और जो (इफ़रातो तफ़रीत की) दाये बायें सम्तों (दिशायों) पर हो लेता है, उस के रवैये की मज़म्मत करते हैं, और उसे तबाही व हलाकत से ख़ौफ़ दिलाते हैं। इन्ही ख़ुसूसीयतों (विशेषताओं) के साथ यह अंधयारियों के चिराग़ और उन शुब्हों (शंकाओं) के लिये राहनुमा (पथ दर्शक) हैं। कुछ पहले ज़िक्र होते हैं जिन्हो ने यादे इलाही को दुनिया के बदले में ले लिया। उन्हे तिजारत इस से ग़ाफ़िल रखती है न ख़रीद व फ़रोख़्त, उसी के साथ ज़िन्दगी के दिन बसर करते हैं, और मुहर्रमाते इलाही (अल्लाह की और से वर्जित निषिद्ध) से मुतनब्बेह (सचेत) करने वाली आवाज़ों के साथ ग़फ़लत शिआरों के कानों में पुकारते हैं, अदलो इंसाफ़ का हुक्म देते हैं और ख़ुद भी उस पर अमल करते हैं। बुराईयों से रोकते हैं और ख़ुद भी उस से बाज़ रहते हैं। गोया उन्हो ने दुनिया में रहते हुए आख़िरत तक मंज़िल को तय कर लिया है, और जो कुछ दुनिया के अक़ब में (पीछे) है उसे अपनी आंखों से देख लिया और गोया कि वह अहले बरज़ख़ उन छिपे हुए हालात पर, जो उन के तवील अरस ए क़याम में पेश नही आये, आगाह हो चुके हैं, और गोया कि क़यामत ने उन के लिये अपने वअदों को पूरा कर दिया और उन्हो ने अहले दुनिया के सामने (उन चीज़ों पर से) पर्दा उलट दिया जहाँ तक कि गोया वह सब कुछ देख रहे हैं जिसे दूसरे लोग नही देख सकते, और वह सब कुछ सुन रहे हैं जिसे दूसरे नही सुन सकते। अगर तुम उन की महफ़िलों में उन की तस्वीर अपने ज़ेहन में ख़ीचों जब कि वह अपनी आमाल नामों को खोले हुए हों और अपने नफ़सों से हर छोटे बड़े काम का मुहासिबा करने पर आमादा हो, ऐसे काम कि जिन पर वह मामूर (नियुक्त) थे और उन्हो ने कोताही की, या ऐसे काम जिन से उन्हे रोका गया था और उन की तक़सीर हुई, और हमेशा अपनी पुश्तों (पीठों) को अपने गुनाहों से गरां बार महसूस करते रहे हों, कि जिन के उठाने से वह दरमांदा (असमर्थ) पाते हों, इस लिये रोते रोते उन की हिचकियां बंध गई हों, और बिलक बिलक कर रोते हुए एक दूसरे को जवाब दे रहे हों, और निदामत व ऐतेराफ़े गुनाह की मंज़िल पर खड़े हुए अल्लाह से चीख़ चीख़ कर फ़रियाद कर रहे हों, तो इस सूरत में तुम्हे हिदायत के निशान और अंधेरों के चिराग़ नज़र आयेगें कि जिन के गिर्द फ़रिश्ते हलक़ा किये होंगे। तसल्ली व तस्कीन का उन पर वुरुद हो, आसमान के दरवाज़े उन पर खुले हुए हों, इज़्ज़त की मसनदें उन के लिये मुहैया हों। ऐसी जगह पर कि जहां अल्लाह की नज़रे तवज्जोह उन पर हो, वह उन की कोशिशों से ख़ुश हों, और उन की मंज़िलत पर आफ़रीन करता हो। वह उसे पुकारने की वजह से अफ़्व व बख़्शिश की हवाओं में सांस लेते हों। वह उस के फ़ज़्ल व करम के सामने ज़िल्लत व पस्ती में जकड़े हुए हों। ग़म व बुका की कसरत ने उन की आंखों को मजरूह कर दिया हो। हर उस दरवाज़े पर उन का हाथ दस्तक देने वाला है जो उस की तरफ़ मुतवज्जेह व राग़िब करे। वह उस से मांगते हैं जिस के जूद व करम की पहनाईयां तंग नही होती और न ख़्वाहिश लेत कर बढ़ने वाले ना उम्मीद फिरते हैं। तुम अपनी बहबूदी के लिये अपने ही नफ़्स का मुहासिबा करो क्यों कि दूसरों का मुहासिबा करने वाला तुम्हारे अलावा दूसरा है।

ख़ुतबा 220

(आयते क़ुरआन, ऐ इंसान, तुझे किस चीज़ ने अपने परवरदिगारे करीम के बारे में धोका दिया है? कि तिलावत के वक़्त इरशाद फ़रमाया)

यह शख़्स जिस से यह सवाल हो रहा है, जवाब में कितना आजिज़ और यह फ़रेब ख़ुर्दा उज़्र पेश करने में कितना क़ासिर है। वह अपने नफ़्स को सख़्ती से जिहालत में डाले हुए है।

ऐ इंसान, तुझे किस चीज़ ने गुनाहों पर दिलेर (निर्भीक) कर दिया है, और किस चीज़ ने तुझे अपने परवर दिगार के बारे में धोका दिया है, और किस चीज़ ने तुझे अपनी तबाही पर मुतमईन बना दिया है। क्या तेरे मरज़ के लिये शिफ़ा और तेरे ख़्वाबे (ग़फ़लत) के लिये बेदारी नही है? क्या तुझे अपने ऊपर इतना भी रहम नही आता जितना दूसरों पर तरस खाता है। बसा औक़ात (बहुधा) तू जलती धूप में किसी को देखता है तो उस पर साया कर देता है, या किसी को दर्द व कर्ब में मुबतला पाता है तो उस पर शफ़क़त की बेना पर तेरे आंसू निकल पड़ते हैं। मगर ख़ुद अपने रोग पर तुझे किस ने सब्र दिला दिया है और किस ने तुझे अपनी मुसीबतों पर तवाना कर दिया है, और ख़ुद अपने ऊपर रोने से तसल्ली दे दी है। हालां कि जब जानों से तुझे अपनी जान अज़ीज़ है। और क्यों कर अज़ाबे इलाही के रात ही को डाल देने का ख़तरा पड़ा हुआ है। दिल की कोताहियों के रोग का चारा अज़्मे रासिख़ से, आंख़ों के ख्वाबे ग़फ़लत का मुदावा बेदारी से करो। अल्लाह के मुतीइ व फ़रमा बरदार बनो और उस की याद से जी लगाओ। ज़रा इस हालत का तसव्वुर करो.... वह तुम्हारी तरफ़ बढ़ रहा है और तुम उस से मुंह फेरे हुए हो और वह तुम्हे अपने दामने अफ़्व में जगह लेने के लिये बुला रहा है और अपने लुत्फ़ व एहसान से ढांपना चाहता है, और तुम हो कि उस से रू गर्दा हो कि दूसरी तरफ़ रुख़ किये हुए हो। बलंद व बरतर है वह ख़ुदा ए क़वी व तवाना कि जो कितना बड़ा करीम है, और तू इतना आजिज़ व नातवां और इतना पस्त हो कर गुनाहों पर कितना जरी और दिलेर है। हालांकि उसी के दामने पनाह में इक़ामत गुज़ीं है और उसी के लुत्फ़ व एहसान की पहनाइयों में उठता बैठता है। उस ने अपने लुत्फ़ व करम से तुझ को रोका नही और न तेरा पर्दा चाक किया है। बल्कि उस की किसी नेमत में जो उस ने तेरे लिये ख़ल्क़ की, या किसी गुनाह में कि जिस पर उस ने पर्दा डाला, या किसी मुसीबत या इब्तेला में, कि जिस का रुख़ तुझ से मोड़ा, तू उस के लुत्फ़ व करम से लहज़ा भर के लिये महरुम नही हुआ। यह उस सूरत में है कि तू उस की मअसियत करता है तो फिर तेरा इस बारे में क्या ख़्याल है? कि अगर तू उस की इताअत करता होता। ख़ुदा की क़सम, अगर यही रवैया दो ऐसे शख़्सों में होता जो क़ुव्वत व क़ुदरत में बराबर के हम पल्ला होते। (और उन में से एक ऐसा होता जो बे रुख़ी करता और दूसरा उस पर एहसान करता) तो तू ही अपने नफ्स पर सब से पहले कज ख़ुल्क़ी की व बद किरदारी का हुक्म लगाता। सच कहता हूँ कि दुनिया ने तुझ को फ़रेब नही दिला बल्कि तू (ख़ुद जान बूझ कर) उस के फ़रेब में आया है। उस ने तेरे सामने नसीहतों को खोल कर रख दिया है और तुझे (हर चीज़ से) यकसां तौर पर आगाह कर दिया। उस ने जिन बलाओं को तेरे जिस्म पर तारी होने का वअदा किया है उस में रास्तगो और ईफ़ा ए अहद करने वाली है। बजाय इस के कि तुझ से झूट कहा हो या फ़रेब दिया हो। कितने ही इस दुनिया के बारे में सच्चे नसीहत करने वाले हैं जो तेरे नज़दीक क़ाबिले ऐतेबार हैं और कितने ही उस के हालात को सही सही बयान करने वाले हैं जो झुटलाये जाते हैं अगर तू टूटे हुए घरों और सुनसान मकानों से दुनिया की मारेफ़त हासिल करे तो तू उन्हे अच्छी याद दहानी और मुवस्सिर पन्द देही के लिहाज़ से बमंज़िलेही एक एक मेहरबान के पायेगा जो तेरे (हलाकतों में पड़ने से) बुख़्ल (कंजूसी) से काम लेते हैं। यह दुनिया उस के लिये अच्छा घर है जो इसे घर समझने पर ख़ुश न हो, और उसी के लिये अच्छी जगह है जो इसे अपने वतन बना कर न रहे। इस दुनिया की वजह से सआदत की मंज़िल पर कल वही लोग पहुचेंगे जो आज उस से गुरेज़ां हैं।

 जब ज़मीन ज़लज़ले में और कयामत अपनी हौलनाकियों के साथ आ जायेगी और हर इबादत गाह से उस के पुजारी और हर मअबूद से उस के परस्तार और हर पेशवा से उस के मुक़तदी मुलहक़ हो जायेगें तो उस वक़्त फ़ज़ में शिगाफ़ पैदा करने वाली नज़र और ज़मीन में क़दमों की हल्का चाप का बदला भी उस की अदालत गुस्तरी व इंसाफ़ परवरी के पेशे नज़र हक़ व इंसाफ़ से पूरा पूरा दिया जायेगा। उस दिन कितनी ही दलीलें ग़लत व बे मअना हो जायेगी और उज़्र व मअज़िरत के बंधन टूट जायेंगें, तो अब उस चीज़ को इख़्तियार करो जिस से तुम्हारा उज़्र क़बूल और तुम्हारी हुज्जत साबित हो सके। जिस दुनिया से तुम को हमेशा बहरायाब (लाभांवित) नही होना उस से वह चीज़ें ले लो जो तुम्हारे लिये हमेशा बाक़ी रहने वाली है। अपने सफ़र के लिये तैयार रहो (दुनिया की ज़ुल्मतों में) निजात की चमक पर नज़र करो और जिद्द व जहद की सवारियों पर पालन कस लो।

ख़ुतबा 221

ख़ुदा की क़सम, मुझे सअदान (एक कांटे दार झाड़ी जिसे उंट चरते हैं) के कांटों पर जागते हुए रात गुज़ारना और तौक़ व ज़ंजीर में मुक़ैय्यद हो कर घसीटा जाना इस से कहीं ज़्यादा पसंद है कि मैं अल्लाह और उस के रसूल (स) से इस हालत में मुलाक़ात करूँ कि मैं ने किसी बंदे पर ज़ुल्म किया हो, या माले दुनिया में से कोई चीज़ ग़स्ब की हो। मैं उस नफ़्स की ख़ातिर क्यों कर किसी पर ज़ुल्म कर सकता हूँ जो जल्द ही फ़ना की तरफ़ पलटने वाला और मुद्दतो तक मिट्टी के नीचे रहने वाला हूँ।

ब ख़ुदा मैं ने (अपने भाई) अक़ील को सख़्त फ़क़र व फ़ाक़े की हालत में देखा, यहां तक कि वह तुम्हारे (हिस्से के) गेंहूं में से एक स्वाअ मुझ से मांगते थे, और मैं ने उन के बच्चों को भी देखा जिस के बाल बिखरे हुए और फ़क़र व बे नवाई से रंग तीरगा मायल हो चुके थे गोया उन के चेहरे नील छिड़क कर सियाह कर दिये गये हैं। वह इसरार करते हुए मेरे पास आये और इस बात को बार बार दोहराया। मैं ने उन की बातों को कान दे कर सुना तो उन्हो ने ख़्याल किया कि मैं उन के हाथों अपना दीन बेच डांलूगा और अपनी रविश छोड़ कर उन की खींच तान पर उन के पीछे हो जाऊंगा। मगर मैं ने किया यह कि एक लोहे के टुकड़े को तपाया और फिर उन के जिस्म के क़रीब ले गया ता कि वह इबरत हासिल करें। चुनांचे वह इस तरह चीख़ें जिस तरह कोई बीमार दर्द व कर्ब से चीख़ता है, और क़रीब था कि उन का बदन उस दाग़ देने से जल जाये। फिर मैं ने उन से कहा कि ऐ अक़ील, रोने वालियां तुम पर रोयें, क्या तुम इस लोहे के टुकड़े से चीख़ उठे हो जिसे एक इंसान ने हंसी मज़ाक़ में (बग़ैर जलाने की नीयत से) तपाया है, और तुम मुझे उस आग की तरफ़ खींच रहे हो जिस ख़ुदा ए क़ह्हार ने अपने ग़ज़ब भड़काया है। तुम तो अज़ीयत से चीख़ों और मैं जहन्नम के शोलों से न चिल्लाऊं? इस से अजीब तर वाक़ेआ यह है कि एक शख़्स रात के वक़्त (शहद में) गुंधा हुआ हलवा एक सर बंद बर्तन में लिये हुए हमारे घर पर आया जिस से मुझे ऐसी नफ़रत थी कि महसूस होता था जैसे वह सांप के थूक या उस की क़य में गूंधा गया बै। मैं ने उस से कहा, क्या यह किसी बात का ईनाम है, या ज़कात है या सदक़ा है जो हम अहले बैत पर हराम हैं? तो उस ने कहा कि न यह है न वह है बल्कि तोहफ़ा है तो मैं ने कहा कि पिसर मुर्दा औरतें तुझ पर रोयें क्या तू दीन का राह से मुझ को फ़रेब देने के लिये आया है? क्या तू बहक गया है या पागल हो गया है या यूं ही हिज़यान बक रहा है? ख़ुदा की क़सम, अगर हफ़्त अक़लीम इन चीज़ों समेत जो आसमानों के नीचे हैं मुझे दे दिये जायें कि सिर्फ़ अल्लाह की इतनी मअसीयत करूँ कि मैं च्यूंटी से जौ का एक छिलका छीन लूं, तो कभी भी ऐसा न करूँगा। यह दुनिया मेरे नज़दीक उस पत्ती से भी ज़ियादा बे क़दर है जो टिड्डी के मुंह में हो कि जिसे वह चबा रही हो। अली को फ़ना होने वाली नेमतों और मिट जाने वाली लज़्ज़तों से क्या वास्ता? हम अक़्ल के ख़्वाबे ग़फ़लत में पड़ जाने और लग़ज़िशों की बुराईयों से ख़ुदा के दामन में पनाह लेते हैं और उस से मदद के ख़्वास्त गार है।

ख़ुतबा 222

ख़ुदाया, मेरी आबरू को ग़िना व तवंगरी के साथ महफ़ूज़ रख, और फ़क़्र व तंग दस्ती से मेरी मंज़िलत को नज़रों से न गिरा। कि तुझ से रिज़्क़ मांगने वालों से रिज़्क़ मांगने लगूं, और तेरे बंदों की निगाहे लुत्फ़ व करम को अपनी तरफ़ मोड़ने की तमन्ना करूँ, और जो मुझे दे उस की मदह व सना करने लगूँ, और जो न दे उस की बुराई करने में मुबतला हो जाऊँ, और इन सब चीज़ों के पसे पर्दा तू ही अता करने और रोक लेने का इख़्तियार रखता है। बेशक तू हर चीज़ पर कादिर है।

ख़ुतबा 223

(यह दुनिया) एक ऐसा घर है जो बलाओं में घिरा हुआ और फ़रेब कारियों में शोहरत याफ़्ता है। इस के हालात कभी यकसां नही रहते, और न इस में फ़रोकश होने (निवास करने) वाले सहीह वा सालिम रह सकते हैं। इस के हालात मुख़्तलिफ़ और अवतार बदलने वाले हैं। ख़ुश गुज़रानी की सूरत में इस में क़ाबिले मज़म्मत और अम्न व सलामती का इस में पता नही। इस के रहने वाले तीर अंदाज़ी के ऐसे निशाने हैं कि जिन पर दुनिया अपने तीर चलाती रहती है और मौत के ज़रिये उन्हे फ़ना करता रहती है।

ऐ ख़ुदा के बंदों, इस बात को जाने रहो कि तुम्हे और दुनिया की उन चीज़ों को जिन में तुम हो उन्ही लोगों की राह पर गुज़रना है जो तुम से पहले गुज़र चुके हैं, कि जो तुम से ज़्यादा लंबी उमरों वाले, तुम से ज़्यादा आबाद घरों वाले, और तुम से ज़्यादा पायदार निशानियों वाले थे। उन की आवाज़ें ख़ामोश हो गई, बंधी हवायें उखड़ गई, बदन सड़ गल गये, घर सुनसान हो गये, और नाम व निशान तक मिट गये। उन्हो ने मज़बूत महलों और बिछी हुई मसनदों को पत्थरों और चुनी हुई सिलों और पैवन्दे ज़मीन होने वाली (और) लहद वाली क़ब्रो से बदल लिया, कि जिन के सहनों की बुनियाद तबाही व वीरानी पर है, और मिट्टी ही से उन की इमारतें मज़बूत की गई हैं। उन क़ब्रों की जगह आपस में नज़दीक नज़दीक हैं और उन में बसने वाले दूर उफ़्तादा मुसाफ़िर हैं, ऐसे मक़ाम में कि जहां वह बौखलाए हुए हैं, और ऐसी जगह में कि जहाँ दुनिया के कामों से फ़ारिग़ हो कर आख़िरत की फ़िक्रो में की हमसायगी और घरों के क़ुर्ब के बावजूद हमसायों की तरह आपस में मेल मिलाप नही रखते। और क्यों कर आपस में मिलना जुलना हो सकता है जब कि बोसिदगी व तबाही ने अपने सीने से उन्हे पेश कर डाला है। और पत्थरों और मिट्टी ने उन्हे खा लिया है। तुम भी यही समझो कि (गोया) वहीं पहुच गये जहां वह पहुच चुके हैं और इसी ख़्वाब गाह (कब्र) ने तुम्हे भी जकड़ लिया है और इसी अमानत गाह (लहद) ने तुम्हे भी चिमटा लिया है। उस वक़्त तुम्हारी हालत क्या होगी कि जब तुम्हारे सारे मरहले इंतेहा को पहुच जायेगें और कब्रों से निकल खड़े होगें। वहाँ हर शख़्स अपने आमाल के (नफ़अ व नुक़सान) की जांच करेगा, और वह अपने सच्चे मालिक ख़ुदा की तरफ़ पलटाये जायेंगें और जो कुछ इफ़तरा पर्दाज़ियां करते थे उन के काम न आयेगी।

ख़ुतबा 224

ऐ अल्लाह, तू अपने दोस्तों के साथ तमाम उन्स रखने वालों से ज़ियादा मानूस है, और जो तुझ पर भरोसा रखने वाले हैं उन की हाजत रवाई के लिये हमा वक़्त पेश हैं। तू उन बातिनी क़ैफ़ियतों को देखता और उन के छिपे हुए भेदों को जानता है और उन की बसीरतों की रसाई से बा ख़बर है। उन के राज़ तेरे सामने आशकारा और उन के दिल तेरे आगे फ़रियादी है। अगर तंहाई से उन का जी घबराता है तो तेरा ज़िक्र उन का दिल बहलाता है। अगर मुसीबतें उन पर पड़ती हैं तो वह तेरे दामन में पनाह लेने के लिये मुलतजी होते हैं, यह जानते हुए कि सब चीज़ों की बागडोर तेरे हाथ में है और उन के निफ़ाज़ पज़ीर होने की जगहें तेरे ही फ़ैसले से वाबस्ता हैं।

ख़ुदाया, अगर मैं सवाल करने से आजिज़ रहूँ, या अपने मक़सूद पर नज़र न डाल सकूँ, तो तू मेरी मसलहतों की तरफ़ रहनुमाई फ़रमा, और मेरे दिल की इस्लाह व बहबूदी की सहीह मंजिल पर पहुचा। यह चीज़ तेरी रहनुमाईयों और हाजत रवाइयों को देखते हुए कोई निराली नहीं।

ख़ुदाया, मेरा मुआमला अपने अफ़्व व बख़्शिश से तय कर न कि अपने अदल व इंसाफ़ के मेयार से।

ख़ुतबा 225

फ़लां शख़्स की कार कर्दगीयों की जज़ा अल्लाह दे, उन्हो ने टेढ़ेपन को सीधा किया, मरज़ का चारा किया, फ़ितना व फ़साद को पीछे छोड़ गए सुन्नत को क़ायम किया, साफ़ सुथरे दामन और कम ऐबों के साथ दुनिया से रुख़्सत हुए। (दुनिया की) भलाईयों को पा लिया और उस की शर अंगेज़ियों से आगे बढ़ गये। अल्लाह की इबादत भी की और उस का पूरा पूरा ख़ौफ़ भी खाया। ख़ुद चले गये और लोगो को ऐसे मुतफ़र्रिक़ रास्तों में छोड़ गये कि जिन में गुम कर्दा राहे रास्त नही पा सकता और हिदायत याफ़्ता यक़ीन तक नही पहुच सकता।

इब्ने अबिल हदीद ने तहरीर किया है कि लफ़्ज़े फ़लां किनाया (व्यंजना) है हज़रत उमर से और यह कलेमात उन ही मदह व तौसीफ़ में कहे गये हैं जैसा कि सैयद रज़ी के तहरीर कर्दा नुस्ख़ ए नहजुल बलाग़ा में लफ़्ज़े फ़लां के नीचे उन ही के हाथ का लिखा हुआ लफ़्ज़े उमर मौजूद था। यह है इब्ने अबिल हदीद का दअवा.... मगर देखना यह है कि अगर सैयद रज़ी ने ब तौरे तशरीह हज़रत उमर का नाम लिखा होगा जो जिस तरह उन के दूसरे तशरीहात मौजूद हैं। इस तशरीह को भी मौजूद होना चाहिये था और उन नुस्ख़ों में इस का वुजूद होना चाहिये था, कि जो उन के नुस्ख़े से नक़्ल होते रहे हैं। चुनांचे अब भी मूसम में मोतसिम बिल्लाह के दौर के शोहरा आफ़ाक़ ख़त्तात याक़ूत अल मुस्तअसिमी के हाथ का लिखा हुआ क़दीम तरीन नहजुल बलाग़ा का नुस्ख़ा मौजूद है। मगर सैयद रज़ी की इस तशरीह (व्याख्या) की निशान दही किसी ने भी नही की और अगर इब्ने अबिल हदीद की इस रिवायत को सहीह मान लिया जाये तो उसे ज़ियादा से ज़ियादा सैयद रज़ी की ज़ाती राय (व्यक्ति गत विचार) कहा जा सकता है जिसे क़वी दलील (मज़बूत तर्क) की मौजूदगी में ब तौरे मुअय्यिद (समर्थन स्वरुप) तो पेश किया जा सकता है मगर मुस्तक़िल्लन इस शख़्सी राय (व्यक्ति गत राय) को कोई अहमियत (महत्व) नही दी जा सकती।

हैरत (आश्चर्य) है कि इब्ने अबिल हदीद सातवीं हिजरी में सैयद रज़ी के ढाई सौ बरस बाद यह इफ़ादा फ़रमाते हैं कि (लाभ उठाते हैं) कि इस से हज़रत उमर मुराद है और यह कि सैयद रज़ी ने ख़ुद इस की तशरीह (स्पष्ट) कर दी थी, चुनांचे उन के ततब्बो (अनुसरण) में बाज़ दूसरे शारेहीन (भाष्य कर्ताओं, टीका कारों) ने भी यही लिखना शुरु कर दिया। लेकिन सैयद रज़ी के मुआसेरीन (समकालीन) में से जिन लोगों ने भी नहजुल बलाग़ा से मुतअल्लिक़ कुछ लिखा है उन की तहरीरात में इस का कुछ पता नही चलता। हालां कि ब हैसियत मुआसिर (समकालीन) होने के सैयद रज़ी की तहरीर पर उन्हे ज़ियादा मुत्तलअ होना चाहिये था। चुनांचे अल्लाह अली इब्नुन नासिर जो सैयद रज़ी के हम अस्र (समकालीन) थे और उन ही के दौर में नहजुल बलाग़ा की शरह (टीका) एलामें नहजुल बलाग़ा के नाम से लिखते हैं वह इस ख़ुतबे के ज़ैल में तहरीर फ़रमाते हैं:

हज़रत ने अपने असहाब में से एक ऐसे शख़्स को हुस्ने सीरत के साथ सराहा है कि जो पैग़म्बर (स) के बाद पैदा होने वाले फ़ितने से पहले ही इंतेक़ाल कर चुका था।

इस की ताईद अल्लामा कुतुबुद्दीन रावन्दी मुतवफ़्फ़ी 573 हिजरी क़मरी की शरहे नहजुल बलाग़ा से भी होती है। चुनांचे इब्ने तमीम ने उन का यह क़ौल नक़्ल किया है:

हज़रत ने इस से ज़मान ए पैग़म्बर (स) के अपने एक ऐसे साथी को मुराद लिया है जो फ़ितने के बरपा होने और फैलने से पहले ही रेहलत कर चुका था।