चार में से एक तो यह हुआ, और दूसरा शख़्स वह है जिस ने (थोड़ा बहुत) रसूलल्लाह (स) से सुना लेकिन जूं का तूं उसे याद न रख सका और उस में उसे सहव हो गया। यह जान बूझ कर नहीं बोलता। यही कुछ उस की दस्तरस में है। उसे ही दूसरों से बयान करता है और उसी पर ख़ुद भी अमल पैरा होता है और कहता भी यही है कि मैं नो रसूलल्लाह (स) से सुना है। अगर मुसलमानों को यह ख़बर हो जाती कि उस की याददाश्त में भूल चूक हो गई है, तो वह उस की बात को न मानते और अगर ख़ुद भी उसे इस का इल्म हो जाता तो उसे छोड़ देता।
तीसरा शख़्स वह है जिस ने रसूलल्लाह (स) की ज़बान से सुना कि आप ने एक चीज़ के बजा लाने का हुक्म दिया है, लेकिन उसे मालूम न हो सका या यूं कि फिर पैग़म्बर (स) को एक चीज़ से मना करते हुए सुना फिर आप ने उस की इजाज़त दे दी, लेकिन उस के इल्म में यह चीज़ न आ सकी। उस ने क़ौले मंसूख़ को याद रखा और हदीसे नासिख़ को महफ़ूज़ न रख सका। अगर उसे खुद मालूम हो जाता कि यह मंसूख़ है तो वह उसे छोड़ देता, और मुसलमानो को भी अगर उस के मंसूख़ हो जाने की ख़बर होती तो वह भी उसे नज़र अंदाज़ कर देते।
और चौथा शख़्स वह है कि जो अल्लाह और उस के रसूल पर झूट नही बांधता। वह ख़ौफ़े ख़ुदा और अज़मते रसूल (स) के पेशे नज़र किज़्ब (झूट) से नफ़रत करता है। उस की याददाश्त में ग़लती वाक़े नही होता बल्कि जिस तरह सुना, उसी तरह उसे याद रखा और उसी तरह उसे बयान किया। न उस में कुछ बढ़ाया, न उस में कुछ घटाया। हदीसे नासिख़ को याद रखा तो उस पर अमल भी किया। हदीसे मंसूख़ को को भी अपनी नज़र में रखा, और उस से इजतेनाब बरता। वह उस हदीस को भी जानता है जिस का दायरा महदूद और उसे भी जो हमागीर और सब को शामिल है और हर हदीस को उस के महल और मक़ाम पर रखता है और यूं ही वाज़ेह और मुबहम हदीसों को पहचानता है।
कभी रसूलल्लाह (स) का कलाम दो रुख़ लिये होता है। कुछ कलाम वह जो किसी वक़्त और अफ़राद से मख़सूस होता है और कुछ वह जो तमाम औक़ात और तमाम अफ़राद को शामिल होता है और ऐसे अफ़राद भी सुन लिया करते थे कि जो समझ ही न सकते थे कि अल्लाह ने इस से क्या मुराद लिया है, और पैग़म्बर (स) को इस से क्या मक़सद है। तो यह सुनने वाले उसे सुन तो लेते थे और कुछ उस का मफ़हूम भी क़रार दे लेते थे। मगर उस के हक़ीक़ी मअनी और मक़सद और वजह से नावाक़िफ़ होते थे। और न असहाबे पैग़म्बर (स) में सब ऐसे थे कि जिन्हे आप से सवाल करने की हिम्मत हो बल्कि वह तो यह चाहा करते थे कि कोई सहराई बद्दू या परदेसी आ जाये और वह कुछ पूछे तो यह भी सुन लें, मगर मेरे सामने कोई चीज़ न गुज़रती थी मगर यह कि मैं उस के मुतअल्लिक़ पूछता था और फिर उसे याद रखता था। यह हैं लोगों के अहादीस व रिवायात के इख़्तिलाफ़ के वुजूह व असबाब।
यह सुलैम बिन क़ैस हिलाली थे जो अमीरुल मोमिनीन (अ) के रुवाते हदीस में से हैं।
अमीरुल मोमिनीन (अ) ने इस ख़ुतबे में रुवाते हदीस को चार क़िस्मों में मुन्क़सिम किया है:
पहली क़िस्म यह है कि रावी ख़ुद से किसी रिवायत को वज़अ कर के पैग़म्बर (स) की तरफ़ मंसूब कर दे। चुनांचे ऐसी रिवायतें गढ़ कर आप के सर मंढ़ दी जाती है और यूं ही यह सिलसिला जारी रहा और नित नई रिवायतें मअरज़े वुजूद में आती रहीं। यह एक ऐसी हक़ीक़त है कि जिस से इंकार नही किया जा सकता और अगर कोई इंकार करता है तो उस की बुनियाद इल्मो बसीरत पर नही बल्कि सुख़न परवरी और मुनाज़ेरानी ज़रुरत पर होती है। चुनांचे एक मरतबा अलमुल हुदा सैय्यद मुर्तुज़ा को उलामा ए अहले सुन्नत से मुनाज़रे का इत्तेफ़ाक़ हुआ तो सैय्यद मुर्तुज़ा ने तारीख़ी हक़ायक़ से साबित किया कि अकाबिरे सहाबा के फ़ज़ाइल में जो रिवायतें नक़्ल की जाती हैं वह ख़ुद साख़्ता व जअली हैं। इस पर उन उलामा ने कहा कि यह ना मुम्किन है कि कोई रसूलल्लाह (स) पर इफ़तरा बांधने की जुरअत करे और अपनी तरफ़ से कोई रिवायत गढ़ कर उस की तरफ़ मंसूब कर दे।
सैय्यद मुर्तुज़ा ने फ़रमाया कि पैग़म्बर (स) की हदीस है कि
मेरे बाद मुझ पर कसरत से झूंट बांधा जायेगा। देखो, जो मुझ पर जान बूझ कर झूट बांधेगा उस का ठिकाना जहन्नम है।
तो अगर इस हदीस को सही मानते हो तो तसलीम करो कि पैग़म्बर (स) पर झूट बांधा गया, और अगर ग़लत समझते हो तो इस का ग़लत होना ख़ुद हमारे दावे की दलील है। बहर सूरत यह वह लोग थे जिन के दिलों में निफाक़ भरा हुआ था और दीन में फ़ितना व इंतेशार पैदा करने और कमज़ोर अक़ीद मुसलमानों को गुमराह करने के लिये मन गढ़ंत रिवायतें बनाते रहते थे, और जिस तरह पैग़म्बर (स) के ज़माने में मुसलमानों से घुले मिले रहते थे उसी तरह उन क बाद भी उन में घुले मिले रहे, और जिस तरह उस वक़्त फ़साद व तख़रीब में लगे रहते थे उसी तरह उन के बाद भी इस्लाम की तालीमात को बिगाड़ने और उस के नुक़ूश को मस्ख़ करने की फिक्र से ग़ाफ़िल न थे। बल्कि पैग़म्बर (स) के ज़माने में तो डरे सहमे रहते थे कहीं पैग़म्बर (स) उन्हे बे नक़ाब कर के रुसवा न करें। मगर आं हज़रत (स) के बाद उन की मुनाफ़िक़ाना सर गर्मियां बढ़ गई, और बे झिझक अपने ज़ाती मफ़ाद व अग़राज़ के लिये पैग़म्बर (स) पर इफ़तरा बांध देते थे और सुनने वाले उन्हे सहाबिये रसूल (स) समझ कर ऐतेबार व ऐतेमाद कर लेते थे कि बस जो कह दिया है वह सही है और जो फ़रमा दिया है वह दुरुस्त है और बाद में भी, सहाबा कुल के कुल आदिल हैं, के अक़ीदे ने ज़बानों पर पहरा बैठा दिया कि जिस की वजह से नक़दो नज़र जरहो तादील से उन्हे बुलंद व बाला समझ लिया गया और फिर उन के कारहा ए नुमायां ने उन्हे बारगाहे हुकूमत में भी मुक़र्रब बना रखा था, जिस की वजह से उन के ख़िलाफ़ ज़बान खोलने की जुरअत व हिम्मत की ज़रुरत थी। चुनांचे अमीरुल मोमिनीन (स) का यह क़ौल शाहिद है:
उन लोगो का क़िज़्ब व बोहतान के ज़रिये गुमराही के पेशवाओं और जहन्नम का बुलावा देने वालों के यहां असर रूसूख़ पैदा किया। चुनांचे उन्हो ने उन को (अच्छे अच्छे) ओहदों पर लगाया और हाकिम बना कर लोगों की गर्दनों पर मुसल्लत कर दिया।
मुनाफ़िक़ीन का मक़सद इस्लाम की तख़रीब के साथ दुनिया का हासिल करना भी था और वह उन्हे मुद्दई ए इस्लाम बने रहने की वजह से पूरी फ़रावानी से हासिल हो रही थी, जिस की वजह से वह इस्लाम की नक़ाब उतार कर अपने शैतानी अतवार को जारी रखते और उस की बुनियादी तख़रीब के लिये रिवायात वज़अ कर के इनतेशार व इफ़तेराक़ फैलाने में लगे रहते थे। चुनांचे इब्ने अबिल हदीद ने लिखा है:
जब उन्हे खुला छोड़ दिया गया तो उन्हो ने भी बहुत सी बातों को छोड़ दिया और जब उन से ख़ामोशी इख़्तियार कर ली गई तो उन्हो ने भी इस्लाम के बारे में चुप साध ली। मगर दर पर्दा फ़रेब कारियां अमल में लाते रहते थे। जैसे किज़्ब तराशी, कि जिस तरफ़ अमीरुल मोमिनीन (अ) ने इशारा किया कि क्यों कि हदीस में झूट की बहुत ज़्यादा आमेज़िश कर दी गई थी और यह फ़ासिद अक़ीदा रखने वालों की तरफ़ से होती थी। चुनांचे वह उस के ज़रिये से गुमराही फैलाते, दिलों में ख़दशे और अक़ायद में ख़राबियां पैदा करते थे, और बाज़ का मक़सद यह होता था कि वह एक जमाअत को बुलंद करें कि जिस से उन के दुनियावी अग़राज़ वाबस्ता होते थे। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 3 सफ़हा 14)
इस दौर के गुज़रने के बाद जब मुआविया दीन की रहनुमाई और मुल्क की क़यादत का ज़िम्मेदार बन कर तख़्ते फ़रमा रवाई पर मुतमक्किन हुआ तो उस ने जअली रिवायते गढ़ने का बा कायदा एक महकमा खोल दिया और अपने कारिन्दों को इस पर मामूर किया कि वह अहले बैते अतहार अलैहिमुस सलाम की तनक़ीस और उस्मान और बनी उमय्या के फ़ज़ाइल में हदीसें गढ़ कर नश्र करें और इस के लिये ईनामात और जागीर मुक़र्रर की। जिस के नतीजे में कसीरुत तादाद ख़ुद साख़्ता फ़ज़ाइल की रिवायतें कुतुबे अहादीस में फैली हुई हैं। चुनांचे अबुल हसने मदाइनी ने किताबुल एहदास में तहरीर किया है और इब्ने अबिल हदीद ने अपनी शरह में इसे दर्ज किया है कि
मुआविया ने अपने उम्माले हुकूमत को तहरीर किया कि जो तुम्हारे यहां उस्मान के तरफ़ दार हों ख़्वाह दोस्त दार हों, उन पर नज़र रखो और उन लोगों को जो उन के फ़ज़ाइल व मनाक़िब बयान करते हैं उन्हे अपने दरबार नशीन और मुक़र्रब क़रार दो और उन का ऐहतेराम करो और उन में से जो शख़्स जो रिवायत करे वह मुझे लिखो और उस के और उस के बाप और उस के क़ौंम क़बीले से मुझे आगाह करो। चुनांचे उन लोगों ने ऐसा ही किया। यहां तक कि उस्मान के मनाक़िब व फ़ज़ाइल के अंबार लगा दिये। क्यों कि मुआविया ऐसे लोगों को जायज़े, ख़लअत, अतीये और जागीरें देता था। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 सफ़हा 16)
जब हज़रते उस्मान के फ़ज़ाइल में ख़ुद साख़्ता रिवायतें चार दागें आलम में फैल गयीं तो इस ख़्याल से कि पहले ख़ुलफ़ा का पल्ला सुबुक न रह जाये, उस ने अपने उम्माल को तहरीर किया:
जब तुम्हे मेरा यह फ़रमान मिले तो लोगो को इस अम्र की दावत दो कि वह सहाबा और पहले ख़ुलफ़ा के फ़ज़ाइल में भी हदीसें रिवायत किया करें और देखो, मुसलमानों में से जो शख़्स भी अबू तुराब के बारे में कोई हदीस बयान करे तो उसे तोड़ने के लिये सहाबा के लिये भी वैसी ही हदीसें गढ़ कर बयान करो, क्यो कि वह चीज़ मुझे बहुत पसंद और मेरे लिये ख़ुन्क़िये चश्म का बाइस है। और यह चीज़ अबू तुराब और उस के शियों की हुज्जत को कमज़ोर करने वाली और उस्मान के फ़ज़ाइल व मनाक़िब से भी ज़ियादा गराँ गुज़रने वाली है। चुनांचे उस के ख़ुतूत लोगों को पढ़ कर सुनाये गये। जिस के नतीजे में सहाबा के फ़ज़ाइल में ऐसी रिवायतें गढ़ना शुरु हो गई कि जिन की कोई अस्ल व हक़ीक़त न होती थी। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 3 सफ़हा 16)
इस सिलसिले में इबने अरफ़ा मारूफ़ ब लफ़्ज़विया ने जो अकाबिरे उलमा व मुहद्देसीन में से थे अपनी तारीख़ में तहरीर किया है और इबने अबिल हदीद ने अपनी शरह में दर्ज किया है कि:
सहाबा के फ़ज़ाइल में अकसर हदीसें बनी उमय्या के दौर में गढ़ी गई ता कि उन की बारगाह में रुसूख़ हासिल किया जाये क्यो कि उन का ख़्याल यह था कि वह इस ज़रिये से बनी हाशिम को ज़लील व पस्त कर सकेगें। (शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 3 सफ़हा 16)
वज़ ए रिवायात की आदत तो पड़ चुकी थी, अब दुनिया परस्तों ने सलातीन व उमरा का तक़र्रुब हासिल करने के और माले दुनिया समेटने के लिये उसे एक ज़रीया बना लिया। जैसा कि ग़ियास बिन इब्राहीम में महदी बिन मंसूर को ख़ुश करने के लिये कबूतरों की परवाज़ में एक रिवायत गढ़ कर सुना दी, और अबू सईदे मदायनी वग़ैरा ने इसे ज़रीय ए मआश बना लिया, और हद यह है कि करामिया और बअज़ मुतसव्विफ़ा ने मअसियत से रोकने और इताअत की तरफ़ राग़िब करने के लिये वज़ ए हदीस के जवाज़ का फ़तवा भी दे दिया। चुनांचे तरग़ीब व तरहीब के सिलसिले में बे खटके रिवायते वज़अ की जाती थीं और उसे शरीयत व दियानत के ख़िलाफ़ नही समझा जाता था। बल्कि उमूमन यह काम वही लोग अंजाम देते थे जो बज़ाहिर ज़ोहदो तक़वा और सलाहो रुश्द से आरास्ता होते थे, और जिन की रातें मुसल्लों पर और दिन झूटी रिवायतों के दफ़्तर सियाह करने में गुज़रते थे। चुनांचे इन जअली रिवायतों की कसरत का अंदाज़ा इस से हो सकता है कि इमाम बुख़ारी ने छ: लाख हदीसों में से दो हज़ार छ: सौ एकसठ हदीसें मुन्तख़ब की, मुस्लिम ने आट लाख हदीसों में से चार हज़ार हदीसें क़ाबिले इंतेख़ाब समझी। अबू दाऊद ने पांच लाख हदीसों में से चार हज़ार आठ सौ इंतेख़ाब कीं। अहमद बिन हम्बल ने सात लाख पचास हदीसों में से तीस हज़ार मुन्तख़ब की। मगर जब इस इंतेख़ाब को देखा जाता है तो ऐसी हदीसें सामने आती हैं कि वह किसी हालत में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की तरफ़ मंसूब नही की जा सकतीं। चुनांचे आज मुसलमानों में से एक ऐसा तबक़ा पैदा हो चुका है जो कि इन मसानीद व सेहाह पर नज़र करने के बाद सिरे से हदीस की हुज्जीयत ही से इंकार कर चुका है।
दूसरी क़िस्म के रुवात वह हैं जो मौक़ा व महल को समझे बग़ैर जो उलटा सीधा उन्हे याद रह जाता था वह रिवायत कर देते थे। चुनांचे सही बुख़ारी बाबुल बुका अल मय्यत में हैं कि जब हज़रत उमर ज़ख्मी हुए तो सुहैब रोते हुए उन के यहाँ आये तो हज़रत उमर ने कहा:
ऐ सुहैब, तुम मुझ पर रोते हो, हालां कि रसूलल्लाह (स) ने फ़रमाया था कि घर वालों के रोने से मय्यत पर अज़ाब होता है।
जब हज़रत उमर के इंतेक़ाल के बाद हज़रत आयशा से इस का ज़िक्र आया तो उन्हो ने कहा कि ख़ुदा उमर पर रहम करे, रसूलल्लाह (स) ने तो ऐसा नही फ़रमाया था कि घर वालों के रोने से मय्यत पर अज़ाब होता है। अलबत्ता यह फ़रमाया था कि काफ़िर की मय्यत पर उस के घर वालो के रोने से अज़ाब में ज़ियादती होती है। उस के बाद उम्मुल मोमिनीन ने फ़रमाया कि क़ुरआन में तो यह है कि एक का बार दूसरा नही उठाता। तो यहां रोने वालों का बार मय्यत कैसे उठायेगी। फिर हज़रत आयशा से यह हदीस दर्ज की है कि जिस से पहले हदीस की मज़ीद तशरीह होती है:
ज़ौजए रसूल (स) हज़रत आयशा से रिवायत है कि रसूलल्लाह (स) एक यहूदी औरत के घर की तरफ़ से हो कर गुज़रे कि जिस घर पर उस के घर वाले रो रहे थे तो आप ने फ़रमाया कि इस के घर वाले तो इस पर रो रहे हैं और वह क़ब्र में मुबतला ए अज़ाब है।
तीसरी क़िस्म के रुवात वह हैं कि जिन्हो ने पैग़म्बरे अकरम (स) से हदीसे मंसूख़ को सुना मगर उस नासिख़ हदीस के सुनने का उन को मौक़ा ही न मिला कि वह उसे बयान करते या उस पर अमल करते। हदीसे नासिख़ की मिसाल पैग़म्बर (स) का यह इरशाद है कि जिस में हदीसे मंसूख़ की तरफ़ इशारा भी किया है। मैं ने तुम्हे क़ब्रों की ज़ियारत से रोका था मगर अब तुम ज़ियारत कर सकते हो। इस में ज़ियारते क़ुबूर की नही को इज़ने ज़ियारते क़ुबूर से मंसूख़ कर दिया है। तो जिन लोगों ने सिर्फ़ हदीसे मंसूख़ को सुन रखा था वह उसी पर अमल पैरा रहे।
चौथी क़िस्म के रुवात वह है कि जो अदालत से आरास्ता फ़हमो ज़का के मालिक, हदीस के मौरिद व महल से आगाह, नासिख़ व मंसूख़, ख़ास व आम, मुक़ैय्यद व मुतलक़ से वाक़िफ़ किज़्ब व इफ़तरा से किनारा कश होते थे। जो वह सुनते थे उन के हाफ़िज़ों में महफ़ूज़ रहता था, और उसे सहीह सहीह दूसरों तक पहुचा देते थे। इन्ही की बयान कर्दा अहादीस इस्लाम का सरमाया, ग़िलो ग़िश से पाक और क़ाबिले ऐतेमाद व अमल हैं। ख़ुसूसन वह सरमाय अहादीस जो अमीरुल मोमिनीन (अ) से अमानत दार सीनों से मुन्तकिल होता रहा और क़तओ व बुरीद और तहरीफ़ व तबद्दुल से महफ़ूज़ रहने की वजह से इस्लाम को सहीह सूरत में पेश करता है। काश कि दुनिया इल्म के इन सर चश्मों से पैग़म्बर (स) के फ़ुयूज़ हासिल करती। मगर तारीख़ का यह अफ़सोस नाक बाब है कि ख़वारिज व मुआनेदीन आले मुहम्मद से तो हदीस ली जाती है और जहाँ सिलसिल ए रिवायत में अहले बैत (अ) की किसी फ़र्द का नाम आ जाता है तो क़लम रुक जाता है, चेहरे पर शिकनें पड़ जाती हैं और तेवर बदल जाते हैं।
ख़ुतबा 209
अल्लाह सुबहानहू के ज़ोरे फ़रमां रवाई और अजीबो ग़रीब सनअत (विचित्र कला) की लतीफ़ नक़्श आराई एक यह है कि उस से अथाह दरिया के पानी से जिस की सतहें तह ब तह और मौजें थपेड़े मार रही थीं, एक ख़ुश्क व बे हरकत ज़मीन को पैदा किया फिर यह कि उस ने पानी के बुख़ार की तहों पर तहें चढ़ा दीं, जो जो आपस में मिली हुई थीं, और उन्हे अलग अलग कर के सात आसमान बनाये, जो उस के हुक्म से थमे हुए और अपने मरकज़ (केन्द्र) पर ठहरे हुए हैं, और ज़मीन को इस तरह क़ायम किया कि उसे एक नीलगूं गहरा और (फ़रमाने इलाही के हुदूद में) घिरा हुआ दरिया उठाये हुए है जो उस के हुक्म के आगे बेबस और उस की हैबत के सामने सर नगूँ है, और उस के ख़ौफ़ से उस की रवानी थमी हुई है। और ठोस चिकने पत्थरों, टीलों और पहाड़ों को पैदा किया, और उन को उन की जगहों पर नस्ब और उन की क़रार गाहों में क़ायम किया। चुनांचे उन की चोटियां फ़ज़ा को चीरती हुई निकल गई हैं और बुनियादें पानी में गड़ी हुई हैं। इस तरह उस ने पहाड़ो को पस्त और हमवार ज़मीन से बुलंद किया और उन की बुनियादों को उन के फैलाव और उन के ठहराव की जगहों में ज़मीन के अंदर उतार दिया। उन की चोटियों को फ़लक बोस और बुलंदियों को आसमान पैमा बना दिया और उन्हे ज़मीन के लिये सुतून क़रार दिया, और मेख़ों की सूरत में उन्हे गाड़ा। चुनांचे वह हचकोले खाने के बाद थम गई कि कहीं ऐसा न हो कि वह अपने रहने वालों के ले कर झुक पड़े, या अपने बोझ की वजह से धंस जाये, या अपनी जगह छोड़ दे। पाक है वह ज़ात, कि जिस ने पानी की तुग़यानियों के बाद ज़मीन को थाम रखा और उस के अतराफ़ो जवानिब को तर बतर होने के बाद ख़ुश्क किया, और उसे अपनी मख़्लूक़ात के लिये गहवार ए इसतेराहत (शयन पालना) बनाया और एक ऐसे गहरे दरिया की सतह पर उस के लिये फ़र्श बिछाया जो थमा हुआ है बहता नहीं, और रुका हुआ है जुंबिश नही करता। जिसे तुन्द (त्रीव) हवायें इधर से उधर धकेलती रहती हैं, और बरसने वाले बादल उसे मथ कर पानी खींचते रहते हैं। बेशक इन चीज़ों में सरो सामाने इबरत है उस शख़्स के लिये जो अल्लाह से डरे।
ख़ुतबा 210
ख़ुदाया तेरे बंदों में से जो बंदा हमारी इन बातों को सुने कि जो अद्ल के तक़ाज़ों से हमनवा, और ज़ुल्मो जौर से अलग है। जो दीन व दुनिया की इस्लाह करने वाली और शर अंगेज़ी से दूर हैं और सुनने के बाद फिर भी उन्हे मानने से इंकार कर दे तो इस के मअनी यह हैं कि वह तेरी नुसरत से मुंह मोड़ने वाला, और तेरे दीन की तरक़्क़ी देने से कोताही करने वाला है। ऐ गवाहों में सब से बड़े गवाह, हम तूझे और इन सब को जिन्हे तूने आसमानों और ज़मीनों में बसाया है, उस शख़्स के ख़िलाफ़ गवाह करते हैं। फिर उस के बाद तू ही इस नुसरतो इमदाद से बेनियाज़ करने वाला और उस के गुनाह का उस से मुवाख़िज़ा करने वाला है।
ख़ुतबा 211
तमाम हम्द उस अल्लाह के लिये है जो मख़्लूक़ात की मुशाबिहत से बलंद तर, तौसीफ़ करने वालों के तारीफ़ी कलेमात से बाल तर। अपने अजीबो ग़रीब नज़मो नस्क़ की बदौलत देखने वालों के सामने आशकारा और अपने जलाले अज़मत की वजह से वहमो गुमान दौड़ाने वालों के फ़िकरो औहाम से पोशिदा है। वह आलिम है, बग़ैर इस के कि किसी से कुछ सीखे या इल्म में इज़ाफ़ा और कहीं से इस्तेफ़ादा करे। वह बग़ैर फिक्र व तअम्मुल के हर चीज़ का अंदाज़ा मुक़र्रर करने वाला है, न उसे तारीकियां ढांपती है, न वह रौशनियों से कस्बे ज़िया करता है, न रात उसे घेरती है, न दिन की गर्दिशों का उस पर गुज़र होता है। और उस का जानना बूझना आंखों के ज़रिये नही और न इस का इल्म दूसरों को बताने पर मुनहसिर है।
(इसी ख़ुतबे में नबी (स) का ज़िक्र फ़रमाया है।)
अल्लाह ने उन्हे रौशनी के साथ भेजा और इंतेख़ाब की मंज़िल में सब से आगे रखा, तो उन के ज़रिये से तमाम परांकंदगीयों और परेशानियों को दूर किया, और ग़लबा पाने वालों पर तसल्लुत जमा लिया। मुश्किलों को सहल और दुशवारियों को आसान बनाया। यहां तक कि दायें बायें (इफ़रातो तफ़रीत) की समतों से गुमराही को दूर हटाया।
ख़ुतबा 212
मैं गवाही देता हूँ कि वह ऐसा आदिल है जिस ने अद्ल ही की राह इख़्तेयार की है, और ऐसा हकम है जो (हक़ व बातिल) को अलग अलग करता है। मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (स) उस के बंदे और रसूल और बंदों के सैय्यद व सरदार हैं। शुरु से इंसानी नस्ल में जहाँ जहाँ पर से शाख़े अलग अलग हुई हर मंज़िल में वह शाख़ जिस में अल्लाह ने आप को क़रार दिया था दूसरी शाख़ों से बेहतर ही थी। आप के नसब में किसी बदकार का साझा और किसी फ़ासिक़ की शिरकत नहीं।
देखो, अल्लाह ने भलाई के लिये अहले हक़ के लिये सुतून, और इताअत के लिये सामाने हिफ़ाज़त मुहैया किया है। हर इताअत के मौक़े पर तुम्हारे लिये अल्लाह की तरफ़ से नुसरत व ताईद दस्तगीरी के लिये मौजूद होती है। (जिस को) उस ने जबानों से अदा किया है और उस के दिलों को ढारस दी है। इस में बेनियाज़ी चाहने वाले के लिये बे नियाज़ी और शिफ़ा चाहने वाले के लिये शिफ़ा है।
तुम्हे जानना चाहिये कि अल्लाह के वह बंदे जो इल्मे इलाही के अमानत दार हैं वह महफ़ूज़ चीज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं और उस के चश्मों को (तशनगाने इल्म व मारेफ़त) बा हम मिलते मिलाते हैं और ख़ुलूस व मुहब्बत से मेल मुलाक़ात करते हैं और (इल्मो हिकमत के) सेराब करने वाले साग़रों से छक कर सेराब हो कर (सर चश्म ए) इल्म से पलटते हैं। उन में शक व शुबहे का शाइबा नही होता, औक ग़ीबत का गुज़र नही होता। अल्लाह ने उन के पाकीज़ा अख़लाक़ को उन की तीनत व फ़ितरत में समो दिया है। इन्ही ख़ूबियों की बिना पर वह आपस में मुहब्बत व उन्स रखते हैं और एक दूसरे से मिलते मिलाते हैं, वह लोगों में इस तरह नुमायां हैं जिस तरह (बीजों में) साफ़ सुथरे बीज कि (अच्छे दानों को) ले लिया जाता है और (बुरों को) फेंक दिया जाता है। इस सफ़ाई व पाकीज़गी ने छांट और परखने ने निखार दिया है। इंसान को चाहिये कि वह उन औसाफ़ की पज़ीराई से अपने लिये शरफ़ व इज़्ज़त क़बूल करे और क़यामत के वारिद होने से पहले उस से हरासां रहे और उसे चीहिये कि वह (ज़िन्दगी) के मुख़्तसर दिनों और इस घर के थोड़े से क़ियाम में कि जो बस इतना है कि इस को आख़िरत के घर में बदल ले। आंखे खोले और ग़फ़लत में न पड़े। और अपनी जाय बाज़ गश्त और मंज़िले आख़िरत के जाने पहचाने हुए मरहलों (क़ब्र, बरज़ख़) व हश्र के लिये नेक आमाल कर ले। मुबारक हो उस पाक व पाकीज़ा दिल वाले को जो हिदायत करने वाले की पैरवी और तबाही में डालने वाले से किनारा करता है, और दीद ए बसीरत में जिला बख़्शने वाले की रौशनी, और हिदायत करने वाले के हुक्म की फ़रमा बरदारी से सलामती की राह पा लेता है। और हिदायत के दरवाज़ों के बंद होने और वसाइल व ज़राए के क़तअ होने से पहले हिदायत की तरफ़ बढ़ जाता है। तौबा का दरवाज़ा खुलवाता है और (फिर) गुनाह का धब्बा अपने दामन से छुड़ाता है। वह सीधे रास्ते पर खड़ा कर दिया गया है और वाज़ेह राह उसे बता दी गई है।
ख़ुतबा 213
(अमीरुल मोमिनीन (स) के वह दुआइया कलेमात जो अकसर आप की ज़बान पर जारी रहते थे)
तमाम हम्द उस अल्लाह के लिये है जिस ने मुझे इस हालत में रखा कि न मुर्दा हूँ न बीमार, न मेरी रगों पर बर्स (सफ़ेद दाग़) के जरासीम (कीटाणु) का हमला हुआ है, न बुरे आमाल (के नताइज) में गिरफ़्तार हूँ। न बे औलाद हूं, न दीन से बरगश्ता, न अपने परवरदिगार का मुन्किर हूँ, और न ईमान से मुतवह्हिश। न मेरी अक़्ल में फ़ुतूर आया है न पहली उम्मतों के से अज़ाब में मुबतला हूँ, मैं उस का बे इख़्तियार बंदा और अपने नफ़्स पर सितमरान हूं। (ऐ अल्लाह) तेरी हुज्जत मुझ पर तमाम हो चुकी है, और मेरे लिये अब उज़्र की कोई गुंजाइश नही है। ख़ुदाया, मुझ में किसी चीज़ के हासिल करने की क़ुव्वत नही सिवा इस के कि जो तू मुझे अता कर दे। और किसी चीज़ से बचने की सकत नही सिवाय इस के कि जिस से तू मुझे बचाये रखे। ऐ अल्लाह, मैं तुझ से पनाह का ख़ास्त गार हूँ कि तेरी सरवत के बा वजूद फ़क़ीर व तही दस्त (ख़ाली हाथ) रहूँ या तेरी रहनुमाई को होते हुए भटक जाऊं, या तेरी सल्तनत में रहते हुए सताया जाऊं या ज़लील किया जाऊं। जब कि तमाम इख़्तियारात तुझे हासिल हैं। ख़ुदाया, मेरी इन नफ़ीस चीज़ों में जिन्हे तू छीन लेगा, मेरी रुह को अव्वलीयत का दरजा अता कर, और मुझे सौंपी हुई इन अमानतों में जिन्हे तू पलटा लेगा इसे पहली अमानत क़रार दे।
ऐ अल्लाह, हम तुझ से पनाह के तलब गार हैं, इस बात से कि तेरे इरशाद से मुंह मोड़ें या ऐसे फ़ितनों में पड़ जायें कि तेरे दीन से फिर जायें, या तेरी तरफ़ से आई हुई हिदायत को क़बूल करने के बजाय नफ़्सानी ख़्वाहिशें हमें बुराई की तरफ़ से जायें।
ख़ुतबा 214
(सिफ़्फ़ीन के मौक़े पर फ़रमाया)
अल्लाह सुबहानहू ने मुझे तुम्हारे उमूर का इख़्तियार दे कर मेरा हक़ तुम पर क़ायम कर दिया है, और जिस तरह मेरा तुम पर हक़ है वैसा ही तुम्हारा भी मुझ पर हक़ है। यूं तो हक़ को बारे में बा हमी औसाफ़ (परस्पर गुण) गिनवाने में बहुत वुसअत है, लेकिन आपस में हक़ व इंसाफ़ करने का दायरा बहुत तंग है।
दो आदमियों में से एक का हक़ उस पर उसी वक़्त है जब दूसरे का भी उस पर हक़ हो, और इस का हक़ उस पर जब ही होता है जब उस का हक़ इस पर भी हो, और अगर ऐसी हो सकता है कि उस का तो दूसरों पर हो लेकिन उस पर किसी का हक़ न हो तो यह अम्र ज़ाते बारी तआला के लिये मख़सूस है, न कि उस की मख़्लूक़ के लिये क्यों कि वह अपने बंदों पर पूरा तसल्लुत व इक़्तेदार रखता है। और उस ने तमाम उन चीज़ों में कि जिन पर उस के फ़रमाने क़ज़ा जारी हुए हैं अदल करते हुए (हर साहिबे हक़ का हक़ दे दिया है।) उस ने बंदों पर अपना हक़ यह रखा है कि वह उस की इताअत व फ़रमा बरदारी करें, और उस ने महज़ अपने फ़ज़्लो करम और अपने एहसान को बुसअत देने की बेना पर कि जिस का वह अहल है, उन का कई गुना अज्र क़रार दिया है। फिर उस ने उन के हुक़ूक़े इंसानी को भी कि जिन्हे एक के लिये दूसरे पर क़रार दिया है, अपने ही हुक़ूक़ में से क़रार दिया है। और इन्हे इस तरह ठहराया है कि वह एक दूसरे के मुक़ाबले में बराबर उतरें। और कुछ उन में से कुछ हुक़ूक़ का बाइस होते हैं और उस वक़्त तक वाजिब नही होते जब तक कि उस के मुक़ाबले में हुक़ूक़ साबित न हो जायें। और सब से बड़ा हक़ कि जिसे अल्लाह सुबहानहू ने वाजिब किया है... हुक्मरान का रईयत पर और रईयत का हुक्मरान पर है, कि जिसे अल्लाह ने वाली व रईयत में से हर एक के लिये फ़रीज़ा बना कर आइद किया है। और उसे उन में राबित ए मुहब्बत क़ायम करने और उन के दीन को सर फ़राज़ी बख़्शने का ज़रीया क़रार दिया है। चुनांचे रईयत उसी वक़्त ख़ुशहाल रह सकती है जब हाकिम के तौर तरीक़े दुरुस्त हों। और हाकिम भी उसी वक़्त सलाहे दुरुस्तगी से आरास्ता हो सकता है जब रईयत उस के अहकाम की अंजाम दही के लिये आमादा हो। जब रईयत फ़रमां रवां के हुक़ूक़ से ओहदा बरां हो तो उन के हक़ बा वक़ार, दीन की राहें उस्तवार औप अदलो इंसाफ़ के निशानात बर क़रार हो जायेगें, और पैग़म्बर (स) की सुन्नतें अपने ढर्रे पर चल निकलेगीं और ज़माना सुधर जायेगा। बक़ा ए सल्तनत की तवक़्क़ोआत पैदा हो जायेगीं और दुशमनों की हिर्स व तमअ यास व ना उम्मीदी से बदल जायेगी। और जब रईयत हाकिम पर मुसल्लत हो जाये या हाकिम रईयत पर ज़ुल्म ढाने लगे तो उस मौक़े पर हर बात में इख़्तिलाफ़ होगा। ज़ुल्म के निशानात उभर आयेगें, दीन में मफ़सदे बढ़ जायेगें। शरीयत की राह मतरूक हो जायेगी, ख़्वाहिशों पर अमल दर आमद होगा, शरीयत के अहकाम ठुकरा दिये जायेगें, नफ़्सानी बीमारियां बढ़ जायेगी और बड़े से बड़े हक़ को ठुकरा देने और बड़े से बड़े बातिल पर अमल पैरा होने से भी कोई न घबरायेगा। ऐसे मौक़ पर नेकू कार, ज़लील और बद कार, बा इज़्ज़त हो जाते हैं और बंदों पर अल्लाह की उक़ूबतें बढ़ जाती हैं। लिहाज़ा उस हक़ की अदायगी में एक दूसरे को समझाना बुझाना और एक दूसरे से बख़ूबी तआवुन (सहयोग) करने तुम्हारे लिये ज़रुरी है। इस लिये कि कोई शख़्स भी अल्लाह की इताअत व बंदगी में उस हद तक नही पहुच सकता कि जिस का वह अहल है, चाहे वह उस की ख़ुशनूदियों को हासिल करने के लिये कितना हरीस हो, और उस की अमली कोशिशें भी बढ़ी चढ़ी हुई हों। फिर भी उस ने बंदों पर यह हक़ वाजिब क़रार दिया है कि वह मुक़द्दर भर पंदो नसीहत करें और अपने दरमियान हक़ को क़ायम करने के लिये एक दूसरे का हाथ बटायें। कोई शख़्स भी अपने को इस से बे नियाज़ नही क़रार दे सकता है कि अल्लाह ने जिस ज़िम्मेदारी का बोझ उस पर डाला है उस में उस का हाथ बटाया जाये, चाहे वह हक़ में कितना ही बलंद मंज़िलत क्यों न हो और दीन में उसे फ़ज़ीलत व बरतरी क्यों न हासिल हो, और कोई शख़्स इस से भी गया गुज़रा नही कि हक़ में तआवुन करे या उस की तरफ़ दस्ते तआवुन (सहयोग का हाथ) बढ़ाया जाये, चाहे लोग उसे ज़लील समझें और अपनी हिक़ारत की वजह से आंखों में न जचें।
(इस मौक़े पर आप के असहाब में से एक शख़्स ने आप की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए एक तवील (लंबी) गुफ़्तुगू (वार्ता) की जिस में हज़रत की बड़ी महदो सना की और आप की बातों पर कान धरने और हर हुक्म के सामने सरे तस्लीम ख़म करने का इक़रार किया, तो आप ने फ़रमाया:
जिस शख़्स के दिल में जलाले इलाही की अज़मत और क़ल्ब में मंज़िलते ख़ुदा वंदी की रिफ़अत का एहसास हो उसे सज़ावार (शोभाय मान) है कि उस की जलालत व अज़मत के पेशे नज़र अल्लाह के मा सिवा हर चीज़ को हक़ीर जाने और ऐसे लोगों में वह शख़्स और भी ज़्यादा इस का ज़ियादा अहल है कि जिसे उस ने बड़ी नेमतें दी हों और अच्छे एहसानात कियें हों, इस लिये कि जितनी अल्लाह की नेमतें किसी पर बड़ी होगीं उतना ही उस पर अल्लाह का हक़ ज़ियादा होगा। नेक बंदों के नज़दीक फ़रमां रवाओं की ज़लील तरीन सूरते हाल यह है कि उन के मुतअल्लिक़ यह गुमान होने लगे कि वह फ़ख़रो सर बुलंदी को दोस्त रखते हैं, और उन के हालात किबरो ग़ुरुर पर महमूल हो सकें। मुझे यह तक ना गवार मालूम होता है कि तुम्हे इस का वहमों गुमान भी गुज़रे कि मैं बढ़ चढ़ कर सराहे जाने या तारीफ़ सुनने को पसंद करता हूँ। बे हमदिल्लाह, कि मैं ऐसा नही हूँ, और अगर मुझे इस की ख़्वाहिश भी होती कि ऐसा कहा जाये तो भी अल्लाह के सामने फ़रोतनी करते हुए उसे छोड़ देता, कि ऐसी अज़मत व बुज़ुर्गी को अपनाया जाये कि जिस का वही अहल है। यूँ तो लोग अकसर अच्छी कार कर्दगी के बाद महदो सना को ख़ुश गवार समझा करते हैं (लेकिन) मेरी इस पर मदहो सताइश न करो कि अल्लाह की इताअत और तुम्हारे हुक़ूक़ से ओहदा बर आं हुआ हूँ, क्यों कि अभी उन हुक़ूक़ का डर है कि जिन्हे पूरा करने से मैं अभी फ़ारिग़ नही हुआ। और उन फ़रायज़ का भी अंदेशा है कि जिन का निफ़ाज़ ज़रुरी है। मुझ से वैसी बातें न किया करो जैसी जाबिर व सरकश फ़रमा रवाओं से की जाती है, और न मुझ से उस तरह बचाब करो जिस तरह तैश खाने वाले हाकिमों से बचाव किया जाता है। और मुझ से उस तरह को मेल जोल न रखो जिस से चापलूसी व ख़ुशामद का पहलू निकलता हो। मेरे मुतअल्लिक़ यह गुमान न करो कि मेरे सामने कोई हक़ बात कहे जायेगी तो मुझे गरां गुज़रेगी, और न यह ख़्याल करों कि मैं यह दरख़्वास्त करूँगा कि मुझे बढ़ा चढ़ा दो। क्यों कि जो अपने सामने हक़ कहे जाने और अदल के पेश किये जाने को भी गरां समझता हो, उसे हक़ व इंसाफ़ पर अमल करना कहीं ज़ियादा दुशवार होगा। तुम अपने को हक़ की बात कहने और अद्ल का मशविरा देने से न रोकोस क्यों कि मैं तो अपने को इस से बाला तर नही समझता कि ख़ता करूँ, और न अपने किसी काम को लग़ज़िश से महफ़ूज़ समझता हूँ, मगर यह कि ख़ुदा मेरे नफ़्स को इस से बचाए कि जिस पर वह मुझ से ज़्यादा इख़्तियार रखता है। हम और तुम उसी रब को बे इख़्तियार बंदे हैं, कि जिस के अलावा कोई रब नही है। वह हम पर इतना इख़्तियार रखता है कि ख़ुद हम अपने नफ़्सों पर इतना इख़्तियार नही रखते। उसी ने हमें पहली हालत से निकाल कर, कि जिस में हम थे, बहबूदी की राह पर लगाया और उसी ने हमारी गुमराही को हिदायत से बदला और बे बसीरती के बाद बसीरत अता की।
यह अम्र किसी तशरीह का मोहताज नही है कि इस्मते मलकी और है और इस्मते बशरी और है। फ़रिश्तों के मासूम होने के यह मअना होते हैं कि उन में किसी ख़ता व लग़जिश की तहरीक ही पैदा नही होती। मगर इंसान के मासूम होने के मअनी यह हैं कि जिस में बशरी तक़ाज़े और नफ़्सानी ख़्वाहिशें होती हैं। मगर वह उन्हे रोकने की एक क़ुव्वते ख़ास रखता है और उन से मग़लूब हो कर किसी ख़ता का मुरतकिब नही होता, और इसी क़ुव्वत का नाम इस्मत है। कि जो ज़ाती ख़्वाहिशात व जज़्बात को उभरने नही देती। हज़रत ने इरशाद फ़रमाया कि मैं अपने को इस से बाला तर नही समझता कि ख़ता करूँ। में इन ही तशरी तक़ाज़ों और ख़्वाहिशों की तरफ़ इशारा है। चुनांचे इस लबो लहजे में हज़रत युसुफ़ की ज़बानी क़ुरआन में वारिद हुआ है कि मैं अपने नफ़्स को गुनाह से पाक नही ठहराता, क्यों कि इंसान का नफ़्स गुनाह पर बहुत उभारने वाला है मगर यह कि मेरा परवर दिगार रहम करे। तो जिस तरह यहाँ पर मगर यह कि मेरा परवर दिगार रहम करे, का जो जुमला है उस की वजह से आयत के पहले जुज़ से आप की इस्मत के ख़िलाफ़ दलील नही लाई जा सकती, उसी तरह अमीरुल मोमिनीन (अ) के कलाम से, मगर यह कि ख़ुदा मेरे नख़्स को इस से बचाए। के बाद जो जुमला है उस के होते हुए कलाम के पहले टुकड़े से आप के ग़ैर मासूम होने पर इस्तिदलाल नही किया जा सकता। वर्ना एक नबी की इस्मत से भी इंकार करने पड़ेगा। यूं ही इस ख़ुतबे के आख़िरी टुकड़े से यह न समझना चाहिये कि आप बेसते रसूल (स) से पहले जाहिलियत के अक़ाइद से मुतअस्सिर रह चुके होंगे। और जिस तरह से दूसरों का दामन कुफ़्र व शिर्क से आलूदा रह चुका था उसी तरह आप भी तारीकी व ज़लालत में रहे होगें। क्यों कि आप पैदाइश के दिन से रहबरे आलम के ज़ेरे साया परवरिश पा रहे थे और उन्ही की तालीमी तरबीयत के असरात आप के दिलो दिमाग़ पर छाए हुए थे। लिहाज़ा यह तसव्वुर भी नही किया जा सकता है कि इब्तेदा ए उम्र के नक़्शे क़दम पर चलने वाला ज़िन्दगी के किसी लम्हे में हिदायत से बेगाना रहा होगा। चुनांचे मसऊदी ने तहरीर किया है कि
आप ने कभी शिर्क ही नही किया कि उस से अलग हो कर आप के इस्लाम लाने का सवाल पैदा हो। बल्कि तमाम अफ़आल व आमाल में रसूल (स) के ताबे और उन के पैरो थे और इसी हालते इत्तेबाअ में आप ने सरहदे बुलूग़ में क़दम रखा।
इस मक़ाम पर उन लोगों से जिन को अल्लाह ने तारीकी व गुमराही से राहे रास्त पर लगाया, वह लोग मुराद हैं जो आप के मुख़ातब थे। चुनांचे इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं:
यह ख़ुद अमीरुल मोमिनीन (अ0) की तरफ़ इशारा क्यों नही कि वह काफ़िर नही रहे कि कुफ़्र के बाद इस्लाम लाते बल्कि लोगों की मुख़्तलिफ़ जमाअतें जो आप की मुख़ातब थीं, उन की तरफ़ इशारा फ़रमाया है।