दुशमन की तरफ़ भेजे हुए एक लशकर को यह हिदायतें फ़रमाईः---
जब तुम दुशमन की तरफ़ बढ़ो या दुशमन तुम्हारी तरफ़ बढ़े तो तुम्हारा पड़ाव टीले के आगे या पहाड़ के दामन में, या नहरों के मोड़ पर होना चाहिये ताकि यह चीज़ तुम्हारे लिये पुश्त पनाही और रोक का काम दे और जंग में बस एक तरफ़ या (ज़ियादा से ज़ियादा दो तरफ़ से हो) पहाड़ों की चोटियों और टीलों की बलन्द सतहों पर दीद बानों को बिठा दो, ताकि दुशमन किसी ख़टके की जगह से या किसी इत्मीनान वाली जगह से (अचानक) न आ पड़े, और इस बात को जाने रहो कि फ़ौज का हरावल दस्ता फ़ौज का ख़बर रसां होता है, और हरावल दस्ते को इत्तिलाअत उन मुख़बिरों से हासिल होती है जो आगे बढ़ कर सुराग लाते हैं। देखो तितर बितर हेने से बचे रहो, उतरो तो एक साथ उतरो, और कूच करो तो एक साथ करो, और जब रात तुम पर छा जाए तो नेज़ो को (अपने गिर्द) गाड़ कर अक दायरा सा बना लो, और सिर्फ़ औंघ लेने और एक आध झपकी ले लेने के सिवा नीन्द का मज़ा न चखो।
जब अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने नुख़ैला की छावनी से ज़ियाद इबन् नज़रे हारिसी और शुरैह इबने हानी को आठ हज़ार और चार हज़ार के दस्ते पर सिपाह सालार मुकर्रर कर के शाम की जानिब रवाना किया तो इन दोनों में मन्सब के सिलसिले में कुछ अख़तिलाफ़े राय हो गया। जिस की इत्तिलाअ उन्हों ने अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को दी और एक दूसरे के खिलाफ़ शिकायकत आमेज़ खुतूत लिखे। हज़रत ने जवाब में तहरीर फ़रमाया कि अगर तुम मिल कर सफर करो तो पूरी फ़ौज का नज़्मो नसक़ ज़ियाद इबने नज़र के हाथ में होगा और अगर अलग अलग सफ़र करो तो जिस दस्ते पर तुम्हें अमीर मुक़र्रर किया है उसी का नज़्मों इनसिराम तुम से मुतअल्लिक होगा।
इस खत के ज़ैल में हज़रत ने जंग के लिये चन्द हिदायत भी उन्हें तहरीर फरमाए, और अल्लामा रज़ी ने सिर्फ़ हिदायत वाला हिस्सा ही इस मुक़ाम पर दर्ज किया है। यह हिदायत न सिर्फ़ उस ज़माने के तरीक़ए जंग के लिहाज़ से निहायत कार आमद ौर मुफ़ीद हैं बल्कि इस ज़माने में भी जंगी उसूल की तरफ़ रहनुमाई करने के एतिबार से इन की इफ़ादियत व अहम्मियत नाक़ाबिले इन्कार है।
वह हिदायत यह हैः---कि जब दुशमन से मुठभेड़ हो तो पहाड़ों और नदी नालों के मोड़ों में पड़ाव डालो। क्यों कि इस सूरत में नहरों के नशेब ख़न्दक का एक पहाड़ों की चोटियों फ़सील का काम देंगीं। और तुम अक़ब (पीछे) से मुत्मइन हो कर एक दूसरे अतराफ़ से दुशमन का दिफ़ाअ कर सकोगे। दूसरे यह कि लड़ाई एक तरफ़ से हो या ज़ियादा से ज़ियादा दो तरफ़ से, क्यों कि फ़ौज के मुतअद्दिद महाज़ों पर तक़्सीम किये जाने से उस में कमज़ोरी का रुनुमा होना ज़रुरी है, और दुशमन तुम्हारी फ़ौज के तफ़रिक़े व इन्तिशार का फ़ायदा उठा कर कामयाबी में कोई दुशवारी महसूस न करेगा। तीसरे यह कि टीलों और पहाड़ों की चोटियों पर पास्बान दस्ते बिठा दो ताकि वह दुशमन के हमला आवर होने से पहले तुम्हें आगाह कर सकें। क्यों कि ऐसा भी होता है कि जिधर से दुशमन को आने का खतरा होता है वह उधर से आने के बजाये दूसरी तरफ़ से हमला कर देता है। लिहाज़ा अगर बलन्दियों पर पास्बान दस्ते मौजूद होंगे तो वह दूर से उड़ते हुए गर्दो गुबार को देख कर दुशमन की आमद का पता चला लेंगे। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने इस का इफ़ादी पहलू वाज़ेह करने के लिये यह तारिखी वाक़िआ नक़्ल किया है कि जब कहतबा ने खुरासान से निकल कर एक गांव में पड़ाव डाला तो वह और ख़ालिद इबने बरमक एक बलन्द जगह पर जा बैठे। अभी बैठे ही थे कि ख़ालिद ने देखा कि जंगल की तरफ़ से हिरनों की टुकड़ियां चली आ रही हैं। यह देख कर उस ने कहा कि ऐ अमीर उठीये और लशकर में फ़ौरन ऐलान कराइये कि वह सफ़ बन्दी कर के हथियारों को सम्भाल लें यह सुन कर क़हतबा ख़डबड़ा कर उठ ख़डा हुआ और इधर उधर देख कर कहने लगा कि मुझे तो कहीं भी दुशमन की फ़ौज नज़र नहीं आती। उस ने कहा कि ऐ अमीर यह वक्त बातों में ज़ाए (नष्ट) कर ने का नहीं है। आप इन हिरनों को देख लीजिये जो अपने ठिकाने छोड़ कर आबादी की तरफ़ बड़े चले आ रहे हैं। इस के मअनी यह हैं कि अक़ब में दुशमन की फ़ौज चली आ रही है। चुनांचे उस ने फ़ौरन अपनी फ़ौज को तैयार रहने का हुक्म दिया। इधर लशकर का तैयार होना था कि घोड़ों की टापों की आवाज़ कानों में आने लगीं और देखते ही देखते दुशमन सर पर मंडलाने लगा। और यह चूंकि बर वनक्त मुदाफ़ेअत का सामान कर चुके थे, इस लिये पूरे तौर से दुशमन का मुक़ाबिला किया। और अगर ख़ालिद उस बलन्दी पर न होता और अपनी सूझ बूझ से काम न लेता तो दुशमन अचानक हमला कर के उन्हें ख़त्म कर देता। चौथे यह कि इधर उधर जासूस छोड़ दिये जायें ताकि वह दुशमन की नक़्लो हरकत (गतिविधियों) और उस के अज़ायम (योजनाओं) से आगाह करते रहें कि उस की सोची समझी चालों को नाकाम बनाया जा सके। पांचवें यह कि पड़ाव ड़ालो तो एक साथ और कूच (प्रस्थान) करो तो एक साथ ताकि दुशमन उस परागंदगी पर इन्तिय़ार की हालत में तुम पर हमला कर के ब आसानी क़ाबू न पा सके।छटें यह कि रात को अपने गिर्द (चारों ओर) नेज़े (भाले) गाड़ कर हिसार ख़िंच ले ताकि दुशमन शब खून मारे तो उस के हमला आवर होते ही तुम अपने हथियारों को अपने हाथों में ले सको और अगर दुशमन तीर बारानी करे तो उस के ज़रीए से कुछ बचाव हो सके। सातवें यह कि गहरी नीन्द में न सोओ कि दुशमन की आमद का तुम्हें पता ही न चल सके और वह तुम्हारे संभलते संभलते तुम्हें गज़न्द (क्षति) पहुंचाने में कामयाब हो जाए।
जब मअक़िल इबने क़ैस रियाही को तीन हज़ार के हरावल दस्ते के साथ शाम रवाना किया तो यह हिदायत फ़रमाईः---
उस अल्लाह से डरते रहना जिस के रु बरु पेश होना लाज़िमी है, और जिस के अलावा तुम्हारे लिये कोई और आख़री मंज़िल नहीं। जो तुम से जंग करे उस के सिवा किसी से जंग न करना, और दोपहर के वक्त लोगों को सुस्ताने और आराम करने का मौक़ा देना। आहिस्ता चलना और शुरु रात में सफ़र न करना। क्यों कि अल्लाह तआला ने रात सुकून के लिये बनाई है और उसे क़ियाम करने के लिए रख़ा है,न सफ़र न राह पैमाई के लिये। उस में अपने बदन और सवारी को आराम पहुंचाओ, और जब जान लो कि अब सुपैदए सहर फ़ैलने और पौ फटने लगे तो अल्लाह की बरक़त पर चल ख़ड़े होना। जब दुशमन का सामना हो तो अपने साथियों के दरमियान ठहरो और देखो, दुशमन के इतने क़रीब न पहुच जाओ कि जैसे कोई जंग छेड़ना ही चाहता है, और न इतने दूस हट कर रहो कि जैसे कोई लड़ाई से ख़ौफ़ ज़दा हो, उस वक्त तक कि जब तक मेरा हुक़्म तुम तक न पहुंचे। और देखो ऐसा न हो कि उन की अदावत तुम्हें इस बात पर आमादा कर दे कि तुम हक़ की दअवत देने और उन पर हुज्जत तमाम करने से पहले उन से जंग करने लगो।
फ़ौज के दो सरदारों के नामः---
मैं ने मालिक इबने हारिसे अशतर को तुम पर और तुम्हारे मातहत (अधीनस्थ) लशकर पर अमीर मुक़र्रर किया है, लिहाज़ा उन के फ़रमान (आज्ञा) की पैरवी (पालन) करो, और उन्हें अपने लिये ज़िरह और ढ़ाल समझो। क्यों कि वह उन लोगों में से हैं जिन से कमज़ोरी व लग़ज़िश का और जहां जल्दी काम करना तक़ाज़ाए होशमन्दी हो वहां सुस्ती का, और जहां ढ़ील करना मुनासिब हो वहां जल्द बाज़ी का अन्देशा नहीं।
जब हज़रत ने ज़ियाद इबने नज़र और शुरैह इबने हानी के मातहत बारह हज़ार का हरावल दस्ता शाम की जानिब रवाना किया तो रास्ते में सूरर्रुम के नज़दीक अबुल अअवरे सल्लिमी से मुठभेड़ हुई जो शामीयों के दस्ते के साथ वहां पड़ाव ड़ाले हुए था, और उन दोनों ने हारिस इबने जमहान के हाथ एक ख़त भेज कर हज़रत को उस की इत्तिलाअ दी जिस पर आप ने अपने हरावल दस्ते पर मालिक इबने हारिसे अशतर को सिपह सालार बना कर रवाना किया और उन दोनों को इत्तिलाअ देने के लिये यह ख़त तहरीर फ़रमाया। इस में जिन मुख़तसर और जामे अल्फ़ाज़ में मालिके अशतर की तौसीफ़ फ़रमाई उस से मालिक़े अशतर की अख़्ल व फ़रासत, हिम्मतो जुरअत औप फ़ुनूने हर्ब में तजरिबा व महारत और उन की शख्सी अज़मत व अहम्मीयत (ब्यक्तिगत महानता व महत्ता) को अन्दाज़ा हो सकता है।
सिफ़्फ़ीन में दुशमन का सामना करने से पहले अपने लशकर को हिदायत फ़रमाईः---
जब तक वह पहल न करें, तुम उन से जंग न करना, क्यों कि तुम बेहम्दिल्लाह दलील व हुज्जत रखते हो और तुम्हारा छोड़ देना कि, वही पहल करें, यह उन पर दूसरी हुज्जत होगी। ख़बरदार। जब दुशमन मैदान छोड़ कर भागे तो क़िसी पीठ फ़िराने वाले को क़त्ल न करना, किसी बे दस्तो पा पर हाथ न उठाना, किसी ज़ख्मी की जान न लेना, और औरतों को अज़ीयत पहुंचा कर न सताना। चाहे वह तुम्हारी इज़्ज़तो आबरू पर गालियों के साथ हमला करें, और तुम्हारे अफ़सरों को ग़ालियां दें। क्यों कि उन की क़ुव्वतें, उन की जानें और उन की अक़्लें कमज़ोर व ज़ईफ़ होती हैं। हम (पैगमबर स0 के ज़माने में भी) मामूर थे कि उन से कोई तअर्रुज़ न करें। हालां कि वह मुशरिक होती थीं। अगर जाहिलीयत में भी कोई शख्स किसी औरत को पत्थर या लाठी से ग़ज़न्द पहुंचाता था तो उस को और उस की बाद की पुश्तों को मतऊन किया जाता था।
अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) और मुआविया के दरमियान जो जंगो क़िताल की सूरत रूनुमा हुई उस की तमाम तर ज़िम्मेदारी मुआविया पर आयद होती है। इस लियें कि उस ने आप पर खूने उसमान का ग़सत इल्ज़ाम लगा कर जंग के लिये क़दम बढ़ाया। हालां कि यह हक़ीक़त उस से मख़्फ़ी न थी कि क़त्ले उसमान के क्या वजूह हैं, और किन के हाथ से वह क़त्ल हुए। मगर उसे जंगों जिदाल का मौक़ा बहम पहुंचाए बग़ैर अपने मक़्सद में कामयाबी की कोई सूरत नज़र न आती थी। इस लिये अपने इक़तिदार के तहफ़्फ़ुज़ के लिये उसने जंग छेड़ दी जो सरासर जारेहाना थी और जिसे किसी सूरत से जवाज़ के हुदूद में नहीं लिया जा सकता क्यों कि इमामे बरहक़ के ख़िलाफ़ बग़ावत व शर कशी व इत्तिफ़ाक़े उम्मत हराम है। चुनांचे इमामे नूदी ने तहरीर फ़रमाया हैः---
हुरमत के मुआमलात में फ़रमां रवाओं से टक़्कर न लो, और न उन पर एतिराज़ात करो। अलबत्ता तुम को उन में कोई ऐसी बुराई नज़र आए कि जो पायए सुबूत को पहुंच चुकी हो और तुम जानते हो कि वह उसूले इसलाम के ख़िलाफ़ है, तो उसे उन के लिये बुरा समझो, और जहां भी तुम हो सहीह सहीह बात कहो, लेकिन उन पर खुरुज करना उन से जंग कर ना व इज़माए मुसलमीन हराम है। (शर्हे मुस्लिम नूदी जिल्द 2 सफहा 125)।
अब्दुल क़रीम शहरिस्तानी तहरीर करते हैं।
जो शक्स इमामे बरहक़ पर खुरुज करे जिस पर जमाअत ने इत्तिफ़ाक कर लिया हो वह ख़ारिजी कहलायेगा चाहे यह खुरुज सहाबा के दौर में अइम्मए राशिदीन पर हो चाहे उन के बाद उन के ताबेईन पर। (किताबुल मेलल वत्रहल सफहा 53)
इस में कोई शक़ व शुब्हा नहीं कि मुआविया का इक़दाम बग़ावत व सरकशी का नतीजा था और बागडी के ज़ुल्मो उदवान को रोकने के लिये तलवार उठाना किसी तरह आईने अम्न पसन्दी व सुल्ह जुई के ख़िलाफ़ नहीं समझा जा सकता, बल्कि यह मज़लूम का एक क़ुदरती हक़ है और अगर उसे इस हक़ से महरुम कर दिया जाय तो दुनिया में ज़ुल्मों इस्तेव्दाद की रोक थाम और हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त की कोई सूरत ही बाक़ी न रहे। इसी लिये कुदरत ने बागी के ख़िलाफ़ तलवार उठाने की इजाज़त दी है। चुनांचे इर्शादे इलाही हैः—
उन में से अगर एक जमाअत दूसरी जमाअत पर ज़ियादती करे तो तुम उस ज़ियादती कर ने वाली जमाअत से लड़ो। यहां तक कि वह हुक़्मे ख़ुदा की तरफड पलट आए।
यह पहली हुज्जत थी जिस की तरफ़ हज़रत ने तुम्हें बेहम्दिल्लाह दलीलो हुज्जत रखते हो, कह कर इशारा किया है। मगर इस हुज्जत के तमाम होने के बावजूद हज़रत ने अपनी फ़ौज को हाथ उठाने और लड़ाई में पहल करने से रोक दिया, क्यों कि आप यह चाहते थे कि आप की तरफ़ से पहल न हो, और वह सिर्फ़ दिफ़ाअ में तलवार उठायों। चुनांचे जब आप की सुल्ह व उम्न की कोशिशों का जब कोई नतीजा न निकला और दुशमन ने जंग के लिये क़दम उठा दिया तो यह उन पर दूसरी हुज्जत थी जिस के बाद हज़रत के आमादए जंग होने पर न कोई हर्फ़ गिरी की जा सकती है और न आप पर जारेहाना इक़दाम का इल्ज़ाम लगाया जा सकता है, बल्कि यह ज़ुल्मो तअद्दी की तुग़यानियों को रोकने के लिये एक ऐसा फ़रीज़ा था जिसे आप को अंजाम देना ही चाहिये था और जिस की अल्लाह सुब्हानहू ने खुले लफ़्ज़ों में इजाज़त दी है।
चुनांचे इर्शादे इलाही हैः—
जो शख्स तुम पर ज़ियादती करे तुम भी उस पर वैसी ही ज़ियादती करो जैसा उस ने की है, और अल्लाह से डरो, और इस बात को जाने रहो कि अल्लाह पर्हेज़गारों का साथी है।
इस के अलावा अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम से सफ़ आ होना जैसे कि हदीसे, नबवी
या अली। हर्बुका हर्बी। (ऐ अली. तुम से जंग करना मुझ से जंग करना है) इस की शाहिद है, तो इस सूरत में जो सज़ा पैग़मबर (स0) से जिदालो क़िताल करने वाले की होगी वही सज़ा अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) से जंगो पैकार करने वाले के लिये होना चाहिये और पैगमबर (स0) से महाज़े जंग क़ायम कर ने वाला की सज़ा कुदरत ने यह तजवीज़ की हैः---
जो लोग अल्लाह और उस के रसूल (स0) से जंग पर आमादा हों और ज़मीन पर फ़साद फ़ैलाने के लिये तगो दौ करते हों उन की सज़ा यह है कि या तो क़त्ल कर दिये जायें या उन्हें सूली दी जाए, या उन का एक तरफ़ का हाथ और दूसरी तरफ़ का पावं काट दिया जाए, या उन्हें जिला वतन कर दिया जाए। या उन के लिये दुनिया में रुसवाई है और आख़िरत में तो उन के लिये बड़ा अज़ाब है हा।
इस के बाद हज़रत ने जो जंग के सिलसिले में हिदायत फ़रमाए हैं कि किसी भागने वाले, हथियार डाल देने वाले और ज़ख्मी होने वाले पर हाथ न उठाया जाए। वह अख़लाकी एतिबार से इस क़दर बलन्द हैं कि उन्हें अख़लाकी़ क़दरों (मूल्यों) का अअमाल नमूना और इसलामी जंगों की बलन्द मेयार क़रार दिया जा सकता है. और यह हिदायत सिर्फ़ क़ौल तक महदूद (सीनित) न थे, बल्कि हज़रत उन की पूरी पाबन्दी करते थे और दूसरों को भी सख़्ती से उन की पाबन्दी का हुक्म देते थे और किसी मौक़े पर भागने वाले का तआक़ुब (पीछा) और बे दस्तो पा पर हमला और औरतों पर सख़्ती ग़वारा न करते थे। यहां तक कि जमल के मैदान में कि जहां फ़ौजे मुख़ालिफ़ की बागड़ोर ही एक औरत के हाथ में न थी, आप ने अपने उसूल को नहीं बदला बल्कि दुशमन की शिकस्त व हज़ीमत के बाद अपनी बलन्द किर्दारी का सबूत देते हुए उम्मुल मोमिनीन को हिफ़ाज़त के साथ मदीने पहुंचा दिया, और अगर आप के बजाय दूसरा होता तो वह वही सज़ा तजवीज़ करता जो इस नौईयत के इक़दाम की होनी चाहिये।
चुनांचे इबने अबिल हदीद ने तहरीर किया है किः---
जो उन्हों ने हज़रत के साथ बर्ताव किया अगर ऐसा ही हज़रत उमर के साथ करतीं और उन के खिलाफ़ रईयत में बग़ावत फ़ैलातीं तो वह उन पर क़ाबू पाने के बाद उन को क़त्ल कर देते और उन के टुक्ड़े टुक़िड़े कर देते। मगर अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) बहुत बुर्दबार और बलन्द नफ़्स थे।
जब लड़ने के लिये दुशमन के सामने आते थे तो बारगाहे इलाही में अर्ज़ करते थेः—
बारे इलाहा। दिल तेरी तरफ़ खिंच रहे हैं, गर्दनें तेरी तरफ़ उठ रही हैं, आंखें तुझ पर लगी हुई हैं, क़दम हरक़त में आ चुके हैं और बदन लागर पड़ चुके हैं।
बारे इलाहा। छिपी हुई अदावतें उभर आई हैं और क़ीना व इनाद की देगें जोश खाने लगी हैं।
खुदावन्दा। हम तुझ से अपने नबी (स0) के नज़रों से औझल हो जाने, अपने दुशमनों के बढ़ जाने, और अपनी ख़्वाहिशों में तफ़रिक़ा पड़ जाने का शिकवा करते हैं।
पर्वरदिगारा। तू ही हमारे और हमारी क़ौम के रमियान सच्चाई के साथ फ़ैसला कर और तू सब से अच्छा फ़ैसला करने वाला है।
जंग के मौक़े पर अपने साथियों से फ़रमाते थेः---
वह पस्पाई (पद दलन) कि जिस के बाद पलटना हो, और वह अपनी जगह से हटना जिस के बाद हमला मक़्सूद हो, तुम्हें गरां न गुज़रे तलवारों का हक़ अदा कर दो और पहलुओं के बल गिरने वाले (दुशमनों) के लिये मैदान तैयैर रखो। सख्त नैज़ा लगाने ौर तलवारों का भर पूर हाथ चलाने के लिये अपने को आमादा करो। आवाज़ों को दबा लो कि इस से बोदापन क़रीब नहीं फटकता।
उस ज़ात की क़सम। जिस ने दाने को चीरा और जानदार चीज़ों को पैदा किया। यह लोग इसलाम नहीं लाए थे बल्कि इताअत कर ली थी, और दिलों में कुफ़्र को छिपाए रखा था। अब जब कि यारो मददगार मिल गए तो उसे ज़ाहिर कर दिया।
मुआविया के ख़त के जवाब में:---
तुम्हारा यह मुतालबा कि मैं शाम का इलाक़ा तुम्हारे हवाले कर दूं, तो मैं आज वह चीज़ तुम्हें देने से रहा जिस के लिये कल इन्कार कर चुका हूं और तुम्हारा यह कहना कि जंग ने अरब को खा डाला है और आख़िरी सांसों के अलावा इस में कुछ नहीं रहा, तो तुम्हें मअलूम होना चाहिये कि जिसे हक़ ने खाया है वह जत्रत को सिधारा है, और जिसे बातिल ने लुक्मा बनाया है वह दोज़ख में जा पड़ा है। रहा यह दअवा कि हम फ़ने जंग और कसरते तअदाद में बराबर सराबर के हैं, तो याद रखो कि तुम शक में उतने सर गर्मे अमल नहीं हो सकते, जितना मैं यक़ीन पर क़ायम रह सकता हीं, और अहले शाम दुनिया पर उतने मर मटे हुए नहीं है जितना अहले इराक़ आख़िरत पर जान देने वाले हैं। और तुमहारा यह कहना कि हम अब्दे मनाफ की औलाद हैं, तो हम भी ऐसे ही हैं। मगर उमैया हाशिम के और हर्ब अब्दुल मुत्तलिब के और अबू सुफ्यान अबू तालिब के बराबर नहीं हैं। (फ़त्हे मक्का के बाद) छोड़ दिया जाने वाला मुहाजिर का हम मर्तबा नहीं, और अलग से नत्थी किया हुआ रौशन व पाकिज़ा नसब वाले के मानिन्द नहीं, और ग़लत कार हक़ के परस्तार का हम पल्ला नहीं, और मुनाफ़िक़ मोमिन का हम दरजा नहीं है। कितनी बुरी नस्ल वह नस्ल है जो जहन्नम में गिर चुकने वाले अस्लाफ़ की ही पैरवी कर रही है।
फिर इस के बाद हमें नुबुव्वत का भी शरफ़ हासिल है, कि जिस के ज़रीए हम ने ताक़त वर को कमज़ोर और पस्त को बलन्दो वाला कर दिया, और जब अल्लाह ने अरब को अपने दीन में जूक़ दर जूक़ दाखिल किया और उम्मत अपनी खुशी या ना खुशी से इसलाम ले आई तो तुम वह लोग थे कि लालच या ड़र से इस्लाम लाए, उस वक्त कि जब सब्कत करने वाले सब्कत हासिल कर चुके थे, और मुहाजिरीन अव्वलीन फ़ज्लो शरफ़ को ले जा चुके थे।
सुनो शैतान का अपने में साझा न रखो और न उसे अपने ऊपर छा जाने दो।
जंगे सिफ़्फ़ीन के दौरान मुआविया ने चाहा कि हज़रत से दो बारा शाम का इलाक़ा तलब करे और कोई ऐसी चाल चले जिस से वह अपने मक़सूद में कामयाब हो जाए। चुनांचे उस ने अमर इबने आस से इस सिलसिले में मशविरा लिया। मगर उस ने इस से इख़तिलाफ़ करते हुए कहा कि ऐ मुआविया ज़रा सोचो कि तुम्हारी इस तहरीर का अली इबने अबी तालिब पर क्या असर हो सकता है और वह तुम्हारे वर्गलाने से कैसे फ़रेब में आ जायेंगे। जिस पर मुआविया ने कहा कि हम सब अब्दे मनाफ़ की औलाद हैं, मुझ में और अली (अ0 स0) में फ़र्क ही क्या है कि वह मुझ से बाज़ी ले जायें और मैं उन्हें फ़रेब देने में क़ामयाब न हो सकूं। अमर ने कहा कि अगर ऐसा ही ख़्याल है तो फिर लिख देखो। चुनांचे उस ने हज़रत की तरफ़ एक खत लिख भेजा जिस में शाम का मुतालबा किया और यह भी तहरीर किया कि हम सब अब्दे मनाफ़ की औलाद हैं और हम में से एक को दूसरे पर बर्तरी नहीं है। तो हज़रत ने उस के जवाब में यह नामा तहरीर फ़रमाया और अपने अस्लाफ़ के पहलू ब पहलू उस के अस्लाफ़ का तज़किरा कर के उस के दअवाए हम पायगी को बातिल क़रार दिया। अगरचे दोनों की अस्ल एक और दोनों का सिलसिलए नसब अब्दे मनाफ़ तक मुन्तही होता है। मगर अब्दे शम्स की औलाद तहज़ीवी व अख़लाकी बुराइयों का सर चश्मा और शिर्क व ज़ुल्म में मुब्तला थी, और हाशिम का घराना खुदाए वाहिद का परस्तार और बुत परस्ती से किनारा कश था। लिहाज़ा एक ही जड़ से फूटने वाली शाखाओं में अगर फूल भी हों और कांटे भी तो उस से दोनों को एक सतह पर क़रार नहीं दिया जा सकता। चुनांचे यह अम्र किसी सराहत (स्पष्टीकरण) का मोहताज नहीं कि उमैयै औक हाशिम, हर्ब और अब्दुल मुत्तलिब अबू सुफ़यान और अबू तालिब किसी एतिबार से हम पाया न थे। जिस से न किसी मुवर्रिख को इन्कार है और न किसी सीरत निगार को, बल्कि इस जवाब के बाद मुआविया को भी इस की तरदीद में कुछ कहने की जुरअत न हो सकी। क्यों कि इस वाज़ेह हक़ीक़त (स्पष्ट यथार्थ) पर पर्दा नहीं ड़ाला जा सकता कि अब्दे मनाफ़ के बाद हज़रते हाशिम ही वह थे जो कुरैश में एक इम्तियाज़ी वज़ाहत के मालिक थे और खानए क़अबा के अहम तरीन ओहदों में से सिकाया (हाजियों के लिये खाने पीने का सामान फ़राहम करना) उन्हीं के मुतअल्लिक था। चुनांचे हज के मौक़े पर क़ाफ़िलों के क़ाफ़िले आप के यहां उतरते और आप इस खुश उसलूबी से फ़राइज़े मेहमान नवाज़ी अंजाम देते कि आप के सर चश्मए जूदो सख़ा से सेराब होने वाले मुद्दतों आप की मदहो तहसीन में रतबुल लिसान रहते।
इसी आली हौसला व बलन्द हिम्मत बाप के चशमो चिराग हज़रत अब्दुल मुत्तलिब थे जिन का नाम शैबा और लक़ब सैयिदुल बतहा था, जो नस्ले इब्राहिमी (अ0 स0) के शरफ़ के वारिस और कुरैश की अज़मत व सरदार के मालिक थे, और अबरहा के सामने जिस आली हिम्मती व बलन्द निगाह का मुज़ाहिरा किया वह आप की तारीख़ के तबनाक़ बाब हैं। बहर सूरत आप हाशिम के ताज का आवेज़ा और अब्दे मनाफ़ के घराने का रौशन सितारा थे। अब्दे मनाफ़ एक मोती थे मगर उस पर जिला कर ने वाले अब्दुल मुत्तलिब थे।
हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के फ़र्ज़न्द हज़रत अबू तालिब थे जिन की आगोश यतीमे अब्दुल्लाह का गहवारा और रिसालत की तरबियत गाह थी। जिन्हों ने पैग़मबर (स0) को अपने साये में पर्वान चढ़ाया और दुशमनों के मुक़ाबिले में सीना सिपर हो कर उन की हिफ़ाज़त करते रहे। इन जलीलुल कद्र अफ़रदा के मुक़ाबिले में अबू सुफ़यान हर्ब और उमैया को लाना इन का हम रुत्बा ख़्याल करना ऐसा ही है जैसे नूर ज़ौ पाशियों से आंख बन्द कर के उसे ज़ुल्मत का हम पल्ला समझ लेना।
इस नस्ली तफ़रीक़ के बाद दूसरी चीज़ (वजहे फ़ज़ीलत) यह ब्यान की है कि आप हिजरत करने वालों में से हैं और मुआविया तलीक़ है। तलीक़ उसे कहा जाता है जिसे पैगमबर (स0) ने फ़त्हे मक़्क़ा के मौक़े पर छोड़ दिया था। चुनांचे जब पैगम्बर (स0) फ़ातहाना तौर पर मक़्क़े में वारिद हुए तो कुरैश से पूछा कि तुम्हारा मेरे मोतअल्लिक क्या ख़्याल है कि मैं तुम्हारे साथ क्या सुलूक करूंगा। सब ने कहा कि हम क़रीम इबने क़रीम से भलाई के ही उम्मीदवार हैं, जिस पर आं हज़रत ने फ़रमाया कि जाओ तुम तलक़ा हो। यअनी तुम थे तो इस क़ाबिल कि तुम्हें गुलाम बना कर रखा जाता, मगर तुम पर एहसान करते हुए तुम्हें छोड़ दिया जाता है। उन तलक़ों में मुआविया और अबू सुफ़ियान भी थे। चुनांचे शेख मुहम्मद अब्दोहू ने इस मक़तूब के हवाशी में तहरीर किया हैः—
अबू सुफ़ियान और मुआविया दोनों तलक़ा (आज़ादकर्दा) लोगों में से थे।
तीसरी चीज़ वजहे फ़ज़ीलत यह है कि आप का नसब वाज़ेह और रौशन है जिस में कहीं कोई शुब्हा नहीं। इस के बर अक्स (विपरीत) मुआविया के लिये लफ़्ज़े लसीक़ इस्तेमाल किया है। और अहले लुगत ने लसीक़ के मअनी, वह जो अपने बाप के अलावा दूसरों से मंसूब हो। चुनांचे इस सिलसिले में पहला शुब्हा उमैया के मुतअल्लिक किया जाता है कि वह अब्दे शम्स का बेटा था या उस का गुलाम कि जो सिर्फ़ उस की तरबीयत की वजह से उस का बेटा कहलाने लगा था। चुनांचे अल्लामा मजलिसी ने बिहारुल अनवार में कामिल वहाई से नक्ल किया है किः---
उमैया अब्दे शम्स का एक रुमी गुलाम था जब उन्हों ने उस को होशियार और बा फ़हम पाया तो उसे आज़ाद कर दिया और अपना बेटा बना लिया जिस की वजह से उसे उमैया इबने अब्दे शम्स कहा जाने लगा। जैसा कि आयत उतरने से पहले लोग ज़ैद को ज़ैद इबने मोहम्मद (स0) कहा करते थे।
उमवी सिलसिलए नसब में दूसरा शुब्हा यह होता है कि हर्ब जिसे फ़र्ज़न्दे उमैया कहा जाता वह वाकई उस का बेटा था या पर्वर्दा गुलाम था। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने अबुल फ़रजे इस्फ़हानी की किताब (अल आगानी) से नक्ल किया है किः—
मुआविया ने माहिरे अन्साब देअबिल से दर्याफ्त किया कि तुम ने अब्दुल मुत्तलिब को देखा है। कहा कि हां। पूछा कि तुम ने उसे कैसा पाया। कहा कि वह बा वेकार खूब रु और रौशन ज़बीन (चमकती पेशानी वाले) इन्सान थे। और उन के चेहरे पर नूरे नुबुव्वत की दरखशिन्दगी थी। मुआविया ने कहा कि क्या उमैया को भी देखा है। कहा कि हां उसे भी देखा है। पूछा कि उस को कैसा पाया। कहा कि कम्ज़ोर जिस्म, ख़मीदा क़ामत, और आंख़ों से नाबीना था। उस के आगे आगे उस का गुलाम ज़कवान होता था जो उस के लिये फिरता था। मुआविया ने कहा कि वह तो उस का बेटा अमर (हर्ब) था। उस ने कहा कि तुम लोग ऐसा कहते हो मगर कुरैश तो बस यह जानते हैं कि वह उस का गुलाम था। (शर्हे इबने अबिल हदीद जिल्द 3 सफ़हा466)।
इस सिलसिले में तीसरा शुब्हा खुद मुआविया के मुतअल्लिक है। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने तहरीर किया हैः—
मुआविया कि वालिदा हिन्द मक्के में फ़िस्क़ो फुजूर की बदनाम ज़िन्दगी गुज़ारती थी। और ज़ेमख़शरी ने रबीउल अबरार में लिखा है कि मुआविया को चार आदमियों की तरफ़ मंसूब किया जाता था जो यह हैं, मुसाफिर इबने अबी अमरु, अम्मारा इबने वलीद, इबने मुगीरा, अब्बास इबने अब्दुल मुत्तलिब और सबाह। (शर्हे इबने अबिल हदीद जिल्द 1 सफ़हा 63)।
चौथी चीज़ वजहे फ़ज़ीलत यह ब्यान की गई है कि आप हक़ के परस्तार हैं, और मुआविया बातिल का परस्तार। और यह बात किसी दलील की मोहताज नहीं कि मुआविया की पुरी ज़िन्दगी हक़ पोशी व बातिल कोशी में गुज़री, और किसी मर्हले पर भी उस का क़दम हक़ की जानिब उठता हुआ नज़र नहीं आता।
पांचवीं फ़ज़ीलत यह पेश की है कि आप मोमिन हैं और मुआविया मुफ़सिद व मुनाफ़िक़ और जिस तरह हज़रत के ईमान में कोई शुब्हा नहीं किया जा सकता उसी तरह मुआविया की मुफ़सिदा अंगेज़ी व निफ़ाक पर्वरी में भी कोई शुब्हा नहीं हो सकता। चुनांचे अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने उस के निफ़ाक़ को वाज़ेह तौर पर इस से पहले खुतबे में इन लफ़्ज़ों में बयान किया है।
यह लोग ईमान नहीं लाए थे बल्कि इताअत कर ली थी और दिलों में कुफ़्र को छिपाए रखा था। अब जब कि यारो मददगार मिल गए तो उसे ज़ाहिर कर दिया।
वालिये बसरा (बसरा के गवर्नर) अब्दुल्लाह इबने अब्बास के नामः---
तुम्हें मअलूम होना चाहिये कि बसरा वह जगह है जहां शैतान उतरता है, और फ़ितने सर उठाते हैं। यहां के बाशिन्दों (निवासियों) को हुस्ने सुलूक (सदब्यवहार) से खुश रखो, और न उन के दिलों से ख़ौफ़ (भय) की गिरहें (गांठें) खोल दो। मुझे यह इत्तिलाअ (सूचना) मिली है कि तुम बनी तमीम से दुरुश्ती (कठोरता) के साख पेश आते हो और उन पर सख्ती रवा रखते हो। बनी तमीम तो वह हैं कि जब भी उन का कोई सितारा ड़ूबता है तो उसकी जगह दूसरा उभर आता है, और जाहिलीयत और इसलाम में उन से कोई जंग जूई में बढ़ न सका और फिर उन्हें हम से क़राबत का लगाव और अज़ीज़ दारी का तअल्लुक भी है अगर हम उस का ख़याल रखें तो उस का अज्र पायेंगे और उस का लिहाज़ न रखेंगे तो गुनहगार होंगे। देखो इबने अब्बास। खुदा तुम पर रहम करे (रईयत के बारे में) तुम्हारे हाथ और ज़बान से जो अच्छाई या बुराई होने वाली हो उस में जल्द बाज़ी न किया करो क्यों कि हम दोनों उस में बराबर के शरीक हैं। तुम्हें उस हुस्त्रे ज़न के मुताबिक़ साबित होना चाहिये जो मुझे तुम्हारे साथ है, और तुम्हारे बारे में मेरी राय ग़लत न होनी चाहिये। वस्सलाम।
तलहा व ज़ुबैर के बसरा पहुंचने के बाद बनी तमीम ही वह थे जो इन्तिक़ाम उसमान की तहरीक में सरगर्मी से हिस्सा लेने वाले और उस फ़ितने को हवा देने में पेश पेश थे।इस लिये जब अब्दुल्ला इबने अब्बास बसरे के आमिल मुक़र्रर हुए तो उन्हों ने उन की बद अहदी व अदावत को देखते हुए उन्हें बपरे सुलूक ही का मीस्तहक़ समझा और एक हद तक उन के साथ सख्ती का बर्ताव भी किया। मगर उस क़बीले में कुछ लोग अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के मुखलिस शीआ भी थे। उन्हों ने जब इबने अब्बास का अपने क़बीले के साथ यह रवैया देखा तो हारिसह इबने क़िदामह के हाथ एक ख़त हज़रत की खिदमत में तहरीर किया जिस में इबने अब्बास के मुतशद्दिदाना रवैये की शिकायत की जिस पर हज़रत ने इबने अब्बास को यह ख़त तहरीर किया जिस में उन्हें अपनी रविश बदलने और हुस्त्रे सुलूक से पेश आने की हिदायत फ़रमाई है और उन्हें उस क़राबत की तरफ़ मुतवज्जह किया है जो बनी हाशिम व बनी तमीम में पाई जाती है, और वह यह है कि बनी हाशिम व बनी तमीम सिलसिलए नसब में इलयास इबने मुज़र पर ओक हो जाते हैं, मदरेका इबने इलयास की औलाद से हाशिम हैं और तावेखा इबने इलयास की औलाद से तमीम था।
एक आमिल (कार्यकर्ता, कर्मचारी) के नामः---
तुम्हारे शहर के ज़मींदारों ने तुम्हारी सख्ती (कठोरता) संगदिली (निष्ठुरता) तहक़ीर आमेज़ बर्ताव (अपमान जनक ब्यवहार) और तशद्दुद (उत्पीड़न) के रवैये की शिकायत की है। मैं ने ग़ौर किया तो वह शिर्क की वजह से इस क़ाबिल तो नज़र नहीं आते कि उन्हें नज़दीक कर लिया जाए, और मुआहदे (समझौते) की बिना पर उन्हें दूस फ़ेंका और धुत्कारा (घितकारा) भी नहीं जा सकता लिहाज़ा (अस्तु) उन के लिये नर्मी का ऐसा शिईऋआर (ढ़ंग) इख़तियार करो जिस में कहीं कहीं सख्ती की भी झलक हो, और कभी सख्ती कर लो और कभी नर्मी बर्तो,और कुर्बो बोद (निकटता एवं दूरी) और नज़्दीकी व दूरी को समो कर बैन बैन (बीच बीच) का रास्ता इख़तियार करो। इंशा अल्लाह। (अगर अल्लाह ने चाहा)।
यह लोग मजूसी (अग्रि की पूजा कर ने वाले) थे इस लिये हज़रत के आमिल का रवैया उन के साथ वैसा न था जो आम मुसलमानों के साथ था। जिस से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो कर उन लोगों ने अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को शिकायत का ख़त लिखा, और अपने हुकमरान (शासक) के तशद्दुद (उत्पीड़न) का शिकवा किया। जिस के जवाब में हज़रत ने अपने ईमिल को तहरीर फ़रमाया कि वह उन से ऐसा बर्ताव करें कि जिस में न तशद्दुद हो और न इतनी नर्मी कि वह उस से नाजायज़ फ़ायदा उठा कर सर अंगेज़ी (विद्रोह एवं आतंक) पर उतर आयें। क्यों कि उन्हें पूरी ड़ील दे दी जाए तो वह हुकूमत के किलाफ़ रेशा दवानियों (षड़यंत्रों) में खो जाते हैं, और कोई न कोई फ़ितना (उपद्रव) खड़ा कर के मुल्क के नज़्मों नसक़ (ब्यवस्था) में रोड़े अटकाते हैं, और पूरी तरह सख़्ती व तशद्दुद का बर्ताव इस लिये रवा नहीं रखा जा सकता कि वह रिआया (प्रजा) में सुमार होते हैं, और इस एतिबार से उन हुक़ूक़ (अधिकारों) को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता।
ज़ियाद इबने अबीह (अपने बाप के बेटे ज़ियाद) के नाम (जब कि अब्दुल्लाह इबने अब्बास बसरा, नवाहिये अहवाज़ और फ़ार्स व किर्मान पर हुक्मरान थे यह बसरा में उन का क़ायम मक़ाम (सहायक) थाः--
मैं अल्लाह की सच्ची क़सम खाता हूं कि अगर मुझे यह पता चल गया कि तुम ने मुसलमानों के माल में ख़ियानत (अपभोग, खुर्द बुर्द) करते हुए किसी छोटी या बड़ी चीज़ में हेर फ़ेर किया है तो याद रखो कि मैं ऐसी मार मारुंगा कि जो तुम्हें तहीदस्त (खाली हाथ) में, बोझल पीठ वाला, और बेआबरु कर के छोड़ेगी। वस्सलाम।