मकतूब (पत्र) – 41.

एक आलिम के नामः---

मैं ने तुम्हें अपनी अमानत में शरीक किया था, और तुम्हें अपना बिलकुल मख्सूस आदमी क़रार दिया ता, और तुम से ज़ियादा हमदर्दी, मददगारी और अमानतदारी के लिहाज़ से मेरे क़ौम क़ौम में मेरे बरोसे का कोई आदमी न था। लेकिन जब तुम ने देखा कि ज़माना तुम्हारे चचा ज़ाद भाई के खिलाफ़ हमला आवर है और दुशमन बिफरा हुआ है। अमानतें लुट रही हैं, और उम्मत बे राह और मुंतशिर व परागंदा हो चुकी है, तो तुम ने बी अपने इबने अम से रुख मोड़ लिया, और साथ छोड़ देने वालों के साथ तुम ने भी साथ चोड़ दिया, और ख़ियानत करने वालों में दाखिल हो कर तुम भी ख़ायन हो गए। इस तरह तुम ने न सिर्फ अपने चचा ज़ाद भाई के साथ हमदर्दी ही का ख्याल किया, न अमानत दारी के फर्ज़ ही का एहसास किया। गोया अपने जिहाद से तुम्हारा मुद्दआ खुदा की रज़ा मन्दी न था, और गोया तुम अपने पर्वरदिगार की तरफ़ से कोई रौशन दलील न रखते थे, और इस उम्मत के साथ उस की दुनिया बटोरने की चाल चल रहे थे, और उस का माल छीन लेने के लिये ग़फ़लत का मौक़ा ताक रहे थे। चुनांचे जब उम्मत के माल में भर पूर ख़यानत का मौक़ा तुम्हें मिला तो झट से धावा बोल दिया, और जल्दी से कूद पड़े, और जितना बन पड़ा उस माल पर जो बेवाओं और यतीमों के लिये महफूज़ रखा गया था, यूं झपट पड़े जिस तरह फुर्तीला भेड़िया ज़ख्मी और लाचार बकरी को उचक लेता है, और तुम ने खुशी खुशी उसे हिजाज़ रवाना कर दिया, और उसे ले जाने में गुनाह का एहसास तुम्हारे लिये सद्दे राह न हुआ। खुदा तुम्हारे दुशमनों का बुरा करे, गोया यह तुम्हारे मां बाप का तर्का था, जिसे ले कर तुम ने अपने घर वालों की तरफ़ रवाना कर दिया। अल्लाहो अकबर क्या तुम्हारा क़ियामत पर ईमान नहीं। क्या हिसाब किताब की छान बीन का ज़रा भी डर नहीं। ऐ वह शख्स, जिसे हम होश मन्दों में शुमार करते थे, क्यों कि वह खाना पीना तुम्हें खुशगवार मअलूम होता है। जिस के मुतअल्लिक जानते हो कि हराम खा रहे हो और हराम पी रहे हो। तुम उन यतीमों, मिस्कीनों, मोमिनों और मुजाहिदों के माल से जिसे अल्लाह ने उन का हक़ क़रार दिया था, और उन के ज़रीए से इन शहरों की हिफ़ाज़त की थी, कनीज़ें खरीदते हो, और औरतों से ब्याह रचाते हो। अब अल्लाह से डरो, और उन का माल उन्हें वापस करो। अगर तुम ने ऐसा न किया और फिर अल्लाह ने मुझे तुम पर क़ाबू दे दिया, तो मैं तुम्हारे बारे में अल्लाह के सामने अपने को सुर्खुरु करुंगा, और अपनी उस तलवार से तुम्हें ज़र्ब लगाऊंगा जिस का वार मैं ने जिस किसी पर लगाया, वह सीधा दोज़ख में गया। खुदा की क़सम अगर हसन व हुसैन भी वह करते जो तुम ने किया है तो मैं उन से भी कोई रिआयत न करता, और न वह मुझ से अपनी कोई ख़्वाहिश मनवा सकते। यहां तक कि मैं उन से हक़ को पलटा लेता, और उन के ज़ुल्म से पैदा होने वाले ग़लत नतायज को मिटा देता। मैं रब्बुल आलमीन की क़सम खा कर कहता हूं कि मेरे लिये यह कोई दिल खुश कुन बात न थी कि वह माल जो तुम ने हथिया लिया है, मेरे लिये हलाल होता, और मैं उसे बाद वालों के लिये बतौर तर्का छोड़ जाता। ज़रा संभलो और समझो। कि तुम उम्र की आखिरी हद तक पहुंच चुके हो, और मिट्टी के नींचे सौंप दिये गए हो, और तुम्हारे तमाम अअमाल तुम्हारे सामने पेश हैं, उस मक़ाम पर कि जहां ज़ालिम वा हसरता की सदा बुलन्द करता होगा, और उम्र को बर्बाद करने वाले दुनिया की तरफ़ पलटने की आर्ज़ू कर रहे होंगे। हालां कि अब ग़ुरेज़ का कोई मौक़ा न होगा।

मकतूब (पत्र)- 42.

हाक़िमे बहरीन उमर इबने अबी सल्लेमए मख़ज़ूमी के नाम, अब उन्हें मअजूल कर के नोमान इबने अजलाने ज़र्क़ी को उन की जगह मुक़र्रर फ़रमायाः---

मैं ने नोमान अबने अजलाने ज़र्क़ी को बहरीन की हुकूमत दी है, और तुम्हें उस से बे दखल कर दिया है। मगर यह इस लिये नहीं कि तुम्हें ना अहल समझा गया हो, और तुम पर कोई इल्ज़ाम आयद होता हो। हक़ीक़त यह है कि तुम ने हुकूमत को बड़े अच्छे उसलूब से चलाया, और अमानत को पूरा पूरा अदा किया। लिहाज़ा तुम मेरे पास चले आओ। न तुम से कोई बद गुमानी है, न मलामत की जा सकती है, और न तुम्हें ख़ताकार समझा जा रहा है।

वाक़िआ यह है कि मैं ने शाम के सितमगारों की तरफ़ क़दम बढ़ाने का इरादा किया है और चाहा है कि तुम मेरे साथ रहो, क्यों कि तुम उन लोगों में से हो जिन से दुशमन से लड़ने और दीन का सुतून गाड़ने में मदद ले सकता हूं। इंशाअल्लाह।

मकतूब (पत्र) – 43.

मसक़लह इबने हुबैरए शैबानी के नाम जो आप की तरफ़ से हाकिम थाः—

मुझे तुम्हारे मुतअल्लिक एक एसे अम्र की ख़बर मिली है, जो अगर तुम ने किया है तो अपने खुदा को नाराज़ किया, और अपने इमाम को भी गज़बनाक किया। वह यह है कि मुसलमानों के उस माले ग़नीमत को कि जिसे उन के नेज़ों की (अनियों) और घोड़ों की (टापों) ने जमा किया था, और जिन पर उन के खून बहाए गए थे, तुम अपनी क़ौम के उन बदुओं में बांट रहे हो जो तुम्हारे हवा ख़्वाह हैं। उस ज़ात की क़सम। जिस ने दाने को चीरा और जानदार चीज़ों को पैदा किया है, अगर यह सहीह साबित हुआ, तो तुम मेरी नज़रों में ज़लील हो जाओगे, और तुम्हारा पल्ला हल्का हो जायेगा। अपने पर्वरदिगार के हक़ को सुबुक न समझो, और दीन को बीगाड़ कर दुनिया को न संवारो। वर्ना अमल के एतिबार से ख़िसारा उठाने वालों में से होगे।

देखो। वह मुसलमान जो मेरे और तुम्हारे पास हैं, उस माल की तक़सीम में बराबर के हिस्सेदार हैं। इसी उसूल पर वह उस माल को मेरे पास लेने के लिये आते हैं, और ले कर चले जाते हैं।

मकतूब (पत्र) – 44.

ज़ियाद इबने अबीह के नाम (जब हज़रत को यह मअलूम हुआ कि मुआविया ने ज़ियाद को ख़त लिख कर अपने खानदान में मुंसलिक कर लेने से उसे चकमा देना चाहाहै, तो आप ने ज़ियाद को तहरीर फ़रमाया):---

मुझे मअलूम हुआ है कि मुआविया ने तुम्हारी करफ़ कत लिख कर तुम्हारी अक्ल को फुसलाना और तुम्हारी धार को कुन्द करना चाहा है। तुम उस से होशियार रहो, क्यों कि वह शैतान है, जो मोमिन के आगे पीछे और दायें बायें जानिब से आता है, ताकि उसे ग़ाफ़िल पा कर उस पर टूट पड़े, और उस की अक्ल पर छापा मारे। वाक़िआ यह है कि उमर (इबने खत्ताब) के ज़माने में अबू सुफ़यान के मुंह से बे सोचे समझे एक बात निकल गई थी, जो शैतानी वसवसों में से एक वसवसा थी, जिस से न नसब साबित होता है न वारिस होने का हक़ पहुंचता है। तो जो शख्स उस बात का सहारा ले कर बैठे, वह ऐसा है जैसे बज़्मे मय नोशी में बिन बुलाए आने वाला कि उसे धक्के दे कर निकाल बाहर किया जाता है, या ज़ीने फरस में लटके हुए उस प्याले के मानन्द है कि जो इधर उधर थिरकता रहता है।

हज़रत उमर ने ज़ियाद को यमन की एक मुहिम पर रवाना किया। जब वह उस मुहिम को सर करने के बाद पल्टा, तो एक इजतिमाए में (कि जिस में अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0). हजरत उमर, अम्र इबने आस और अबू सुफ़यान भी मौजूद थे) एक खुतबा दिया। जिस से मुतअस्सिर हो कर अम्र न कहाः---

इस जवान का क्या कहना, अगर यह कुरैश में से होता, तो तमाम अरब को अपने असा से हंका ले जाताः---

जिस पर अबू सुफ़यान ने कहा कि यह कुरैश ही का एक फ़र्द है और में जानता हूं कि इस का बाप कौन है। अम्र इबने आस ने पूछा कि वह कौन है। कहा कि वह मैं हूं। चुनांचे तारीख़ िस पर मुत्तफिक़ है कि ज़ियाद की मां सुमैया जो हारिस इबने कल्दह की कनीज़ और उबैद नामी एक गुलाम के निकाह में था। तायफ़ के मुहल्ले हारतुल बग़ाया में बदनाम ज़िन्दगी गुज़ारती थी, और अख़्लाक बाख्ता लोग उस के यहां आया जाया करते ते। चुनांचे एक मर्तबा अबू सुफ़यान भी अबू मर्यम सलूली के ज़रीए वहां पहुंच गया। जिस के नतीजे में ज़ियाद की विलादत हुई। बहर हाल जब अम्र ने अबू सुपयान की ज़बानी यह सुना तो उस ने कहा, फिर इसे ज़ाहिर क्यों नहीं करते। उसने हज़रत उमर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि मुछे इन का ड़र है, वर्ना आज में इसे अपना बेटा क़रार दे देता। अगरचे उसे यह जुरअत न हुई। मगर मुआविया को जब इक़तिदार हासिल हुआ तो उस ने इस से ख़तो किताबत का सिलसिला शुरुउ कर दिया। क्यों की मुआविया को तो ऐसे लोगों की ज़रुरत थी ही, कि जो होशियार और ज़ीरक और जोड़ तोड़ करने में माहिर हों। बहर सूरत जब अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को इस खतो क़िताबत की इत्तिलाअ हुई तो आप ने ज़ियाद को यह ख़त लिखा जिस में उसे मुआविया के वर्गलाने से खबरदार किया है ताक़ि वह उस के फ़रेब में न आए। मगर वह उस के बहकाने में आ गया, और मुआविया से जा कर मिल गया, और उस ने  उसे अपना भाई क़रार दे कर नसबी एतिबार से मुल्हिक़ कर लिया। हालां कि पैगमबरे अकरम (स0) का इर्शाद हैः---

बच्चा शौहर का मुतसव्वर होगा, और ज़ानी के लिये संगसारी व महरुमी है।

मकतूब (पत्र) – 45.

जब हज़रत को यह खबर पहुंची कि वालिये बसरा उसमान इबने हुनैफ़ को वहां के लोगों ने खाने की दअवत दी है और वह उस में शरीक हुए हैं तो उन्हें तहरीर फ़रमायाः---

ऐ हुनैफ़।मुझे यह इत्तिलाअ मिली है कि बसरा के जवानों में से एक शख्स ने तुम्हें खाने पर बुलाया, और तुम लपक कर पहुंच गए कि रंगा रंग के उम्दा उम्दा खाने तुम्हारे लिये चुन चुन कर लाए जा रहे थे, और बड़े बड़े प्याले तुम्हारी तरफ़ बढ़ाए जा रहे थे। मुझे उम्मीद न थी कि तुम उन लोगों की दअवत क़बूल कर लोगो, कि जिन के यहां के फक़ीरो नादार धुत्कारके गए हों और दौलत मन्द मदऊ हों। जो लुक्मे चबाते हो उन्हें देख लिया करो, और जिस के मुतअल्लिक शुब्हा भी हो उसे छोड़ दिया करो, और जिस से पाको पाकीज़ा तरीके से हासिल होने का यक़ीन हो उस में से खाओ।

तुम्हें मअलूम होना चाहिये कि हर मुक्तदी का एक पेशवा होता है, जिस की वह पैरवी करता है, और जिस के नूरे इल्म से कस्बे ज़िया करता है। याद रखो कि तुम्हारे इमाम की हालत तो यह है कि उस ने दुनिया के साज़ो सामान में से दो फटी पुरानी चादरों और खाने में से दो रोटियों पर क़िनाअत कर ली है। मैं मानता हूं कि तुम्हारे बस की बात यह नहीं है, लेकिन इतना तो करो कि पर्हेज़गारी सई व कोशिश, पाक दामनी व सलामत रवी में मेरा साथ दो। खुदा की क़सम मैं ने तुम्हारी दुनिया से सोना समेट कर नहीं रखा, और न उस के माले मताअ में से अंबार तमअ कर रखे हैं, और न इन पुराने कफड़ों के बदले मैं (जो पहने हुए हूं) और कोई पुराना कपड़ा मैं ने मुहैय्या किया है। बेशक इस आसमान के साये तले ले दे कर एक फ़दक हमारे हाथों में था। उस पर भी कुझ लोगों के मुंह से राल टपकी, और दूसरे फकीर ने उस के जाने की पर्वा न की, और बेहतरीन फैसला करने वाला अल्लाह है। भला मैं फेदक या फेदक के अलावा किसी और चीज़ को ले कर करुंगा ही क्या जब कि नफ्स की मंज़िल कल कब्र करार पाने वाली है, कि जिस की अंधयारियों में उस के निशानात मिट जायेंगेस और उस की खबरें ना पैदा हो जायेंगी। वह एक ऐसा गढ़ा है, कि अगर उस का फैलाव बढ़ा भी भी दिया जाए और गोरकन के हाथ उसे कुशादा भी रखें जब भी पत्थर और कंकर उस को तंग कर देंगे और मुसलसल मिट्टी के ड़ाले जाने से उस की दराड़ें बन्द हो जायेंगी। मेरी तवज्जह तो सिर्फ़ इस तरफ़ है कि तक़वाए इलाही के ज़रीए अपने नफ्स को बेकाबू न होने दूं ताकि उस दिन कि जब खौफ हद से बढ़ जाएगा वह मुत्मईन रहे और फिसलने की जगहों पर मज़बूती से जमा रहे। अगर मैं चाहता तो साफ सुथरे शहद उमदा गेहूं और रेशम के बुने हुए कपड़ों के लिये ज़राए मुहैया कर सकता था। लेकिन ऐसा कहां हो सकता है कि ख्वाहिशे मुझे मगलूब बना लें और हिर्स मुझे अच्छे अच्छे खानों के चुन लेने की दअवत दे, जब कि हिजाज व यमामा में शायद ऐसे लोग हों कि जिन्हें एक रोटी के मिलने की भी आस न हो, और उन्हें पेट भर खाना कभी नसीब न हुआ हो। क्या मैं शिकम सेर हो कर पड़ा रहूं दरांहले कि मेरा गिर्दो पेश भूके पेट और प्यासे जिगर तडपते हों, या मैं वैसा हो जाऊ जैसा कहने वालों ने कहा है कि तुम्हारी बिमारी यह क्या कम है कि तुम पेट भर कर लम्बी तान लो, और तुम्हारे गिर्द कुछ ऐसे जिगर हों जो सूखे चमड़े की तरह तरस रहे हों। क्या मैं इसी में मगन रहूं कि मुझे अमीरुल मोमिनीन कहा जाता है। मगर मैं ज़माने की सख्तियों में मोमिनों का शरीक व हमदम और ज़िन्दगी की बदमज़गियों में उन के लिये नमूना न बनूं। मैं इसी लिये तो पैदा नहीं हुआ कि अच्छे अच्छे खानों की फिक्र मैं लगा रहूं। उस बंधे हुए चौपाए की तरह है जिसे सिर्फ अपने चारे ही की फिक्र लगी रहती है, या उस खुले हुए जानवर की तरह जिस का काम मुंह मारना होता है। वह घास से पेट भर लेता है और जो मकसद उस से पेशे नज़र होता है उस से ग़ाफिल रहता है। क्या मैं बे कैदो बन्द छोड़ दिया गया हूं या बिकार खुले बन्दो रिहा कर दिया गया हूं कि गुमराहियों की रस्सियों को खिंचता रहूं और भटकने की जगहों पर मुंह उठाए फिरता रहूं।

मैं समझता हूं तुम में से कोई कहेगा कि जब इबने अबि तालिब की खोराक़ यह है तो ज़ोफो ना तवानाई ने उसे हरीफ़ों से भिड़ने और दिलेरों से टकराने से बिठा दिया होगा। मगर याह रखो कि जंगल के दरख्त की लकड़ी मज़बूत होती है और तरो ताज़ा पेड़ों की छाल कमज़ोर और पतली होती है। और सहराई झाड़ का ईंधन ज़ियादा भड़कता है और देर में बुझता है। मुझे रसूल (स0) से वही निस्बत है जो एक की जड़ बाज़ू से होती है। खुदा की क़सम अगर तमाम अरब एका कर के मुझ से भिडना चाहें तो मैदान छोड़ कर पीठ न दिखाऊंगा और मौक़ा पाते ही उन की गर्दनें दबोच लेने के लिये लपक कर आगे बढ़ूंगा और कोशिश करूंगा कि इस उल्टी खोपड़ी वाले बे हंगम ढ़ांचे (मुआविया) से ज़मीन को पाक कर दूं ताकि खलियान के दानों से कंकर निकल जाए।

ऐ दुनिया मेरा पीछा छोड़ दे तेरी बागड़ोर तेरे कांधे पर है मैं तेरे पन्ज़ों से निकल चुका हूं, तेरे फन्दों से बाहर हो चुका हूं, और तेरी फिसलने की जगहों में बढ़ने से क़दम रोके रखा है। कहां हैं वह लोग जिन्हें तूने खेल तफरीह की बातों से चकमे दिये किधर हैं वह जमाअतें कि जिन्हैं तूने अपनी आराइशों से वर्गलाए रखा। वह क़बरों में जकड़े हुए और खाके लहद में दुब्के पड़े हैं। अगर तू दिखाई देने वाला मुजस्समा और सामने आने वाला ढांचा होती तो बखूदो मैं तुझ पर अल्लाह की मुकर्रर किर्दा हदें जारी कर देता कि तू ने बन्दों को उम्मीदें दिला दिला कर बहकाया, कौमौं की कौमों को (हलाक़त) में गढ़ों में ला फेंका, और ताजदारों को तबाहियों के हवाले कर दिया और सखतियों के पार घाट ला उतारा। जिन पर न इस के बाद सेराब होने के लिये उतरा जायेगा, और न सैराब हो कर पलटा जायेगा। पनाह बखुदा जो तेरे फिसलन पर क़दम रखेगा वह ज़रुर फिसलेगा जो तेरी मौजों पर सवार होगा वह ज़रुर डूबेगा, और जो तेरे फन्दों से बच कर रहेगा, वह तौफीक़ से हम किनार होगा। तुझ से दामन छुड़ा लेने वाला पर्वाह नहीं करता, अगरचे दुनिया की वुसअतें उस के लिये तंग हो जायें, उस के नज़दीक तो दुनिया एक दीन के बराबर है कि जो खत्म होना चाहता है। मुझ से दूर हो कि मैं तेरे क़ाबू में आने वाला नहीं कि तू मुझे ज़िल्लतों में झोंक दे और न मैं तेरे सामने अपनी बाग ढीली छोड़ने वाला हूं कि तू मुझे हंका ले जाए। मैं अल्लाह की क़सम खाता हूं, ऐसी क़सम जिस में अल्लाह की मशियत के अलावा किसी चीज़ का इसतिस्रा नहीं करता कि मैं अपने नफ्स को ऐसा सुंघाऊंगा कि वह खाने में एक रोटे के मिलने पर खुश हो जाए, और उस के साथ सिर्फ नमक पर किनाअत करले, और अपनी आंखों का सोता इस तरह खाली कर दूंगा, जिस तरह वह चश्मए आब जिस का पानी तह नशीन हो चुका हो। क्या जिस तरह बकरियां पेट भर लेने के बाद सीने के बल बैठ जाती हैं और सेर हो कर अपने बाड़े में घुस जाती हैं, उसी तरह अली भी अपने पास का खाना खा ले और बस सो जाए। उसकी आंखें बे नूर हो जायें अगर वह ज़िन्दगी के तवील साल गुज़रने के बाद खुले हुए चौपाओं और चरने वाले जानवरों की पैरवी करने लगे।

खुशा नसीब है वह शक्स जिसने अल्लाह के फराएज़ को पूरा किया। सख्ती और मुसीबत में सब्र किये पड़ा रहा, रातों को अपनी आंखों को बेदार रखा, और जब निंद का गल्बा हुआ तो हाथ का तकिया बना कर उन लोगों के साथ फर्शे खाक पर पड़ा रहा, जिन की आंखें खौफे हशर से बेदार पहलु बिछौनों से अलग और होंट यादे खुदा में ज़िम ज़िमा संज रहते हैं, और कसरते इसतिगफार से जिन के गुनाह छट गए हैं। यही अल्लाह का गुरोह है। और बेशक अल्लाह का गुरोह ही कामरान होने वाला है।

ऐ अबने हुनैफ। अल्लाह से ड़रो और अपनी ही रोटियों पर क़िनाअत करो, ताकि जहत्रम की आग से छुटकारा पा सको।

फदक मदीने से दो मंज़िल के फासले पर एक सर सब्ज़ो शादाब मक़ाम था जो यहूदियों की मिल्कियत था और उन्हीं से सन सात हिजरी में यह इलाका पैगमबरे इसलाम (स0) को सुल्ह के तौर पर हासिल हुआ। इस मुसालेहत की वजह यह हुई कि जब उन्हें फत्हे खैबर के बाद मुसलमानों की ताकत का सहीह अंदाज़ा हुआ तो उनके जंगजूयाना हौसले पस्त हो गए, और यह देखते हुए कि पैगमबरे खुदा ने कुछ यहूदियों को पनाह तलब करने पर छोड़ दिया है, उन्हों ने भी रसूले खुदा (स0) को सुल्ह भेज कर ख्वाहिश की कि उन से फेदक का इलाक़ा ले लिया जाए, और उन की सर ज़मीन को जंग की आमाज़गाह न बनाया जाए। चुनांचे पैगमबरे अकरम (स0) ने उन की दर्ख्वास्त को मंज़ूर करते हुए उन्हें अमान दे दी और यह इलाक़ा आप की खुसूसी मिलकियत क़रार पा गया। जिस में किसी और का दख्ल न था और न हो सकता था, क्यों कि दूसरे मुसलमानों का उन्हीं अमवाल में हिस्सा होता है जिन्हें जिहाद के नतीजे बतौरे गनीमत उन्हों ने हासिल किया हो, और जो माल बगैर फौज कशी के हासिल हुआ हो वह माले (फय) कहलाता है जो सिर्फ़ पैगमबर (स0) का हक़ होता है जिसमें किसी और का हिस्सा नहीं होता। चुनांचे खुदा वन्दे आलम का इर्शाद हैः---

जो माल अल्लाह ने अपने रसूल को उन लोगों से बगैर जंग के दिलवाया कि जिस के लिये न तुम ने घोडे दौडाए न ऊंट (उस में तुम्हारा कोई हक़ नहीं) बल्कि अपने पैगमबरों को जिस पर चाहता है तसल्लुत अता करता है।

और इस बारे में किसी एक ने इखतिलाफ़ नहीं किया कि फदक बग़ैर फौज कशी के हासिल हुआ। इस लिये यह आं हज़रत (स0) की ज़ाती जायदाद थी, जिस में दूसरे का इसतेहक़ाक़ नहीं था। चुनांचे मोवर्रीख तबरी तहरीर करते हैं किः---

फदक रसूलुल्लाह (स0) से मखसूस था क्यों कि मुसलमानों ने उस पर घोड़े दौड़ाए न ऊंट। (तबरी जिल्द 2 सफहा 302)।

और इमाम बलाज़ुरी तहरीर फरमाते हैं किः---

फदक़ रसूलुल्लाह (स0) की खुसूसी मिलकियत था क्यों कि मुसलमानों ने उस पर घोड़े दौड़ाए न ऊंट।

और यह भी मुसल्लम हैसियत से साबित है कि आं हज़रत (स0) ने अपनी ज़िन्दगी में यह इलाका जनाबे सैयिदा (स0 अ0) को बतौरे हिबा अता कर दिया था। चुनांचे मुल्ला अली मुत्तकी तहरीर करते हैं किः---

अबू सईदे खदरी से रिवायत है कि जब आयए, व आयते ज़ुल कुर्बा हक्कह, नाज़िल हुआ तो पागमबर (स0) ने फरमाया कि ऐ फातिमा फदक तुम्हारा हिस्सा है। (कंजुल उम्माल जिल्द 2 सफहा 108)।

हज़रत अबू बकर बर सरे इक्तेदार आए तो उन्हों ने हुकूमत की बाज़ मसलेहतों के पेशे नज़र जनाबे सैयिदा को बे दखल कर दिया और फेदक उन के कब्ज़े से निकाल लिया। चुनांचे इबने हजर तहरीर करते हैं किः---

उबू बकर ने जनाबे सैयिदा से फदक छीन लियाः

जनाबे सैयिदा ने इस के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द की और हज़रत अबू बकर से एहतेजाज करते हुए फरमाया कि तुम ने फदक पर कब्ज़ा कर लिया है हांला कि रसूलुल्लाह (स0) अपनी ज़िन्दगी में ही मुझे हिबा फरमा चुके थे। जिस पर अबू बकर ने जनाबे सैयिदा से गवाह तलब कियए। चुनांचे अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) और उम्मे ऐमन ने उन के हक़ में गवाही दी। मगर हज़रत अबू बकर के नज़दीक यह शहादत क़ाबिले तसलिम नहीं समझी गई और जनाबे सैयिदा के दअवे को गलत बयानी पर महमूल करते हुए खारिज कर दिया गया। चुनांचे इमाम बलाज़री तहरीर फरमाते हैं किः---

हज़रत फातिमा (स0 अ0) ने अबू बकर से कहा कि रसूलुल्लाह (स0) ने फेदक मुझे दिया था लिहाज़ा वह मेरे हवाले करो, और अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने उन के हक़ में गवाही दी। हज़रत अबू बकर ने दूसरे गवाह का मुतालबा किया। चुनांचे दूसरी गवाही उम्मे ऐमन ने दी। जिस पर अबू बकर ने कहा कि ऐ दुख्तरे रसूल तुम जानती हो कि गवाही के लिये दो मर्द या एक मर्द और दो औरतें होनी चाहियें। (फुतूहुल बलदान सफहा 28)।

इन शवाहिद के बाद इस में कतअन गुनजाइशे इन्कार नहीं रहती कि फदक पैगमबर की मख्सूस मिल्कियत था और उनहों ने अपनी ज़िन्दगी में जनाबे सैयिदा को क़ब्ज़ा दिला कर हिबा की तक़मील कर दी थी। लेकिन अबू बकर ने उस का क़ब्ज़ा छीन कर आप को बेदखल कर दिया और इसी सिलसिले में हज़रत अली (अ0 स0) और उम्मे ऐमन की गवाही इस वजह से मुस्तरद कर दी कि एक मर्द और एक औरत की गवाही से निशाबे शहादत मुकम्मल नहीं होता।

इस मुक़ाम पर यह सवाल पैदा होता है कि जब फदक़ पर जनाबे सौयिदा (स0अ0) का कब्ज़ा मुसल्लम है जैसा कि हज़रत ने भी इस मक़तूब में इस की सराहत की है तो हज़रत फातिमा (स0 अ0) से उन के दअवे पर सबूत तलब करने के क्या मअनी होते हैं जब कि बारे सुबूत उस के ज़िम्मे नहीं होता जिस का कब्ज़ा होता है। बल्कि जो उस के खिलाफ़ दअवा करे, सबूत का बहम पहुंचाना भी उस के ज़िम्मे होता है। क्यों कि कब्ज़ा खुद एक दलील की हैसियत रखता है। लिहाज़ा अबू बकर पर यह अम्र आयद होता है कि अपने तसर्रुफ़ के जवाज़ पर कोई सुबूत पेश करते और उस सूरत में कि वह अपने दअवे पर कोई दलील न ला सके जनाबे सैयिदा का कब्ज़ा उन की सही मिल्कियत का सुबूत होगा, और इस सूरत में उन से किसी और सुबूत और मुशाहदे का मुतालबा करना बुनियादी तौर पर गलत होगा।

हैरत इस पर होती है कि हज़रत अबू बकर के सामने इसी नोइय्यत के और क़ज़ाया पेश होते तो वह महज़ दअवे की बिना पर मुद्दई के हक़ के हक़ में फैसला कर देते हैं। न उस में सुबूत तलब किया जाता है और न गवाहों का मुतालबा होता है चुनांचे इमाम बुखारी तहरीर करते हैं किः---

जाबिर इबने अब्दुल्लाह अंसारी से रिवायत है कि उन्हों ने कहा कि मुझ से रसूलुल्लाह (स0) ने फरमाया था कि अगर बहरीन का माल आया तो मैं तुम्हें इतना और इतना दूंगा मगर वफाते पैगमबर (स0) तक वह माल आया, और जब अबू बकर के ज़माने में आया, तो वह उन के पास गए और अबू बकर ने ऐलान कराया कि जिस का रसूलुल्लाह (स0) पर कर्ज़ हो या उन्हों ने किसी से वअदा किया हो तो वह हमारे पाश आए। चुनांचे मैं उन के पास गया और वाकिया बयान किया कि पैगमबर (स0) ने बहरिन का माल आने पर मुझे इतना और इतना देना का वअदा किया था, जिस पर उन्हों ने अता कर दिया।

इसी हदीस की शर्ह में इबने हजरे अस्कलानी ने तहरीर किया है किः---

यह खबर इस अम्र पर दलालत करती है कि सहाबा में से एक आदिल की भी खबर कुबूल की जा सकती है अगरचे वह उसी के फाइदे के लिये ही क्यों न हो, क्यों कि अबू बकर ने जाबिर से उन के दअवे की सेहत पर कोई गवाह तलब नहीं किया।

अगर हुस्त्रे ज़न पर बिना करते हुए उन्हें किसी शाहिद और बेयिना के जाबिर को माल दे देना जायज़ था तो उसी हुस्त्रे ज़न की बिना पर जनाबे सैयिदा (स0 अ0) के दअवे की तस्दीक करने में क्या चीज़ मानेअ थी, जब कि जाबिर के मोतअल्लिक यह खुश एतिमादी हो सकती है कि वह गलत बयानी से काम नहीं ले सकते तो जनाबे सैयिदा (स0 अ0) के मोतअल्सिक यह खुश एतिमादी क्यों नहीं हो सकती कि वह एक क़ितए ज़मीन की खातिर रसूलुल्लाह (स0) पर इफतिरा नहीं बांध सकतीं। अव्वलन आप की मुसल्लेमा सदाक़त व दियानत ही इस के लिये काफी थी कि आप को उन के दअवे में सच्चा समझा जाता। चे जाए कि हज़रत (अ0 स0) और उम्मे ऐमन की गवाही भी उन के हक़ में मैजूद हो और यह कहना कि इन दो गवाहियों से जनाबे सैयिदा (स0 अ0) के हक में फैसला नहीं हो सकता था। क्यों कि कुरआन ने शहादत का उसूल यह मुकर्रर किया है किः---

अपने मर्दों में से दो की गवाही लिया करो और अगर दो मर्द न हों तो एक मर्द और दो औरतें हों।

अगर यह उसूल हमागीर और आम था तो हर मौक़े पर इस का लिहाज़ होना चाहिये था। हालां कि बअज़ मवारिद पर इस की पाबन्दी नज़र नहीं आती। चुनांचे जब एत अअराबी ने नाक़े के मुआमले में आंहज़रत से झगड़ा किया तो खुज़ैमा इबने साबित ने पैगमबर (स0) के हक़ में गवाही दी और उस एक गवाही को दो गवाहियों के बराबर क़रार दिया गया। क्यों कि जिन के हक़ में यह गवाही थी उन की दियानत व सदाक़त में कोई शुब्हा न था। इस लिये न आयए शहादत के उमूम में कुछ रखना पडा और न उसे आइने शहादत के खिलाफ़ समझा गया। तो अगर यहां पैगमबर (स0) की सदाक़त के पेशे नज़र उन के हक़ में एक गवाही क़ाफी समझी गई तो क्या जनाबे सैयिदा की अखलाकी अज़मत और रास्त गुफ्तारी की बिना पर हज़रत अली (अ0 स0) व उम्मे ऐमन की गवाही को हक़ में कभी नहीं समझा जा सकता था। इस के अलावा इस आयत में हगुस्त्र नहीं किया गया कि इन दो सूरतो के अलावा और कोई सूरत इस्बाते मुद्दआ के लिये नहीं हो सकती। चुनांचे क़ाज़ी नुरुल्लाहे शूस्तरी अलैहिर्रहमा ने एहक़ाकुल हक़ बाबुल मताइन में तहरीर किया हैः--

मोतरिज़ का यह कहना कि उम्मे ऐमन की गवाही से निसाबे शहादत नामुकम्मल रहता है, इस बिना पर ग़लत है कि बअज़ अहादीस से यह साबित होता है कि एक गवाह और हलफ़ से भी हुक्म लगाना जाएज़ है। और इस से यह लाज़िम नहीं आता कि कुरआन का हुक्म मंसूख करार पाए, क्यों कि इस आयत का मतलब यह है कि दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों की गवाही से हुक्म लगाया जा सकता है। और उन की गवाही सनद व हुज्जत है। मगर इस से ज़ाहिर नहीं होता कि अगर शहादत के अलावा कोई और दलील हो तो वह क़ाबिले क़बूल नहीं है और न उस की बिना पर हुक्म लगाया जा सकता है। मगर यह कि यह कहा जाए कि इस का मफहूम (लाज़मी मअनी) यही निकलता है। लेकिन (हर मौरिद में) एक मफहूम हुज्जत नहीं होता, लिहाज़ा इस मफहूम को बर तरफ़ किया जा सकता है। जब कि हदीस में इस मफहूम के खिलाफ़ सराहत मौजूद है और मफहूम को बरतरफ़ करने से यह लाज़िम नहीं होता कि आयत मंसूख हो जाए। दूसरे यह कि आयत में दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों की गवाही में इखतियार दिया गया है, और अगर अज़ रुए हदीस इन दो सिक़ों में एक शिक़ का और इज़ाफा हो जाए और वह यह कि एक गवाही और क़सम से भी फैसला हो सकता है तो इस से यह कहां लाज़िम आता है कि कुरआनी आयत का हुक्म मंसूख हो जाए।

बहर हाल इस जवाब से यह अम्र वाज़ेह है कि मुद्दई अपने दअवे के इस्बात के लिये इस का मोहताज नहीं है कि दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों की गवाही पेश करे। बल्कि अगर एक शाहिद के साथ हलफ़ उठाए तो उसे उस के दअवे में सच्चा समझते हुए उस के हक़ में फैसला हो सकता है। चुनांचे मुल्ला अली मुत्तकी तहरीर करते हैं किः---

रसूलुल्लाह (स0) अबू बकर उमर और उसमान एक गवाही और मुद्दई की क़सम क़सम पर फैसला कर दिया करते थे।

जब एक गवाह और क़सम पर फैसले होते रहे थे तो अगर हज़रत अबू बकर कू नज़र में निसाबे शहादत ना मुकम्मल था तो वह जनाबे सैयिदा से क़सम लेलेते और उन के हक़ में फैसला कर देते मगर यहां तो मक्सद ही यह था कि जनाबे सैयिदा की शहादत को मजरुह किया जाए ताकि आइन्दा किसी मंज़िल पर उन की तस्दिक का सवाल ही पैदा न हो।

हर सूरत जब इस तरह जनाबे सैयिदा (अ0 स0) का दअवा मुस्तरिद कर दिया गया और फिदक को हिबए रसूल न समझा गया, तो आप ने मिरास की रु से उस का मुतालबा किया कि अगर यह तुम नहीं मानते कि पैगमबरे अकरम (स0) ने मुझे हिबा किया था तो इस से तो इंकार नहीं कर सकते कि फदक पैगमबर (स0) की मख्सूस मिल्कियत था और मैं उन की तन्हा वारिस हूं। चुनांचे अब्दुल करीम शहरिस्तानी तहरीर करते हैं किः—

जनाबे फातिमा (अ0 स0) ने एक दफआ विरासत की रु से दअवा किया और एक दफआ मिल्कियत की रु से। मगर आप को उस से महरुम कर दिया गया। उस मशहूर रिवायत की वजह से जो पैगमबर (स0) से मर्वी है कि आप ने फरमाया कि हम गुरोहे अंबिया किसी को अपना वारिस नहीं बनाते, बल्कि जो छोड़ जाते हैं वह सदक़ा होता है।

इस क़ौल का जिसे हदीसे रसूल कह कर पेश किया गया हज़रत अबू बकर के अलावा किसी को इल्म न था, और न सहाबा में से किसी और ने उसे सूना था, चुनांचे जलालुद्दीन सुयूती ने तहरीर किया हैः---

आं हज़रत की वफ़ात के बाद आप की मिरास के बारे में इख्तिलाफ़ पैदा हुआ, और किसी के पास इस के मुतअल्लिक कोई इत्तिलाअ न थी। अलबत्ता अबू बकर ने कहा कि मैं ने रसूलुल्लाह (स0) को फरमाते हुए सुना है कि हम गुरोहे अंबिया किसी को अपना वारिस नहीं बनाते, बल्कि जो छोड़ जाते हैं वह सदक़ा होता है।

अक्ल यह तसलिम करने से इंकार करती है कि पैगमबरे अकरम (स0) उन अफराद को जो आप के वारिस समझे जा सकते थे यह तक न बतायें की उन का कोई वारिस नहीं है। फिर यह रिवायत मंज़रे आम पर उस वक्त लाई जाती है कि जब फदक़ का मुकद्दमा आप की अदालत में दायर हो चुका था और वह खुद उस में एक फरीके मुखालिफ़ की हैसियत रखते थे तो ऐसी सूरत में अपनी ताईद में ऐसी रिवायत पेश करना जो सिर्फ़ उन्हीं से सुनी गई हो क्यों कि कर क़बीले तसलिम हो सकती है। और अगर यह कहा जाए कि हज़रत अबू बकर की जलालते कद्र के पेशे नज़र इस रिवायत पर एतमाद करना चाहिये। तो अगर उन की अज़मतो मंज़िलत की बिना पर इस रिवायत पर वुसूक किया जा सकता है तो क्या जनाबे सैयिदा (स0 अ0) की दियानत और रास्त बाज़ी के पेशे नज़र उन के दअवए हिबा पर एतमाद नही किया जा सकता था। जब कि अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) और उम्मे ऐमन की शहादत भी उन के हक़ में हो। और अगर इस सिलसिले में मज़ीद शहादत की ज़रुरत महसूस की गई हो तो इस रिवायत के लिये भी शहादत तलब की जा सकती है। जब कि यह रिवायत कुरआन के उमूमी हुक्मे विरासत के भी मुख्तलिफ़ है। और ऐसी रिवायत जो रिवातन कमज़ोर और दिरायतन मकदूह व मजरुह हो, कुरआन के उमूमी हुक्मे विरासत की मख्सूस क्यों कर क़रार पा सकती है जब कि कुरआन में अंबिया की विरासत का सराहतन तज़किरा मौजूद है चुनांचे इर्शादे इलाही है किः---

सुलैमान दाऊद के वारिस हुए।

दूसरे मौक़े पर जनाबे ज़करीया अला नबीयेना व अलैहिस्सलातो वस्सलाम की ज़बानी इर्शाद हैः--

मैं अपने बाद अपने बनी अअमाम से डरता हूं इस लिये कि मेरा बीवी वे औलाद है। (ऐ अल्लाह) तु मुझे अपनी तरफ़ से एक वली अता फरमा जो मेरा और औलादे यअकूब का वारिस हो, और ऐ अल्लाह तू उसे पसन्दीदा क़रार दे।

इस आयत में विर्से से माल ही का विर्सा मुराद है और उसो मअनिये मजाज़ी पर महमूल करते हुए इल्म व नबुव्वत का विर्सा मुराद लेना न सिर्फ बईद बल्कि वाक़ईयात के भी खिलाफ़ है। क्यों कि इल्म न नबुव्वत विर्से में मिलने वाली चीज़ नहीं है और न उन में बतौरे विर्सा मुन्तकिल होने की सलाहियत पाई जाती है। अगर यह विर्से में मुन्तकिल हुआ करती तो फिर तमाम अंबिया की औलाद को नबी होना चाहिये था। इस तफ़रीक़ के कोई मअनी नहीं कि बअज़ अंबिया की औलाद को विर्सए नबुव्वत मिले और बअज़ को उस से महरुम कर दिया जाए। हैरत है कि नबुव्वत के बतौर विर्सा मुन्तकिल होने का नज़रीया उन लोगों की तरफ़ से पेश होता है जो हमेशा से शीओं पर यह एतिराज़ करते चले आए हैं कि उन्हों ने इमामत व खिलाफ़त को एक मौरुसी चीज़ क़रार देकर उसे एक ही खानदान में मुन्हसिर कर दिया है। तो क्या यहां विर्सए नबुव्वत मुराद लेने से नबुव्वत एक मौरुसी चीज़ बन कर न रह जायेगी।

अगर हज़रते अबू बकर की नज़र में इस हदीस की रु से पैगमबर (स0) का कोई वारिस नहीं हो सकता था तो उस वक्त यह हदीस कहां थी जब हज़रते फ़ातिमा (स0 अ0) का हक्के विरासत तसलीम करते हुए दस्तावीज़ तहरीर कर दी थी। चुनांचे साहेबे सीरत  हलबिया सिब्ते इबने जौज़ी से नक्ल करते हैः----

हज़रते अबू बकर मिंबर पर थे कि जनाबे फ़ातिमा तशरीफ़ लाईं और फरमाया कि कुरआन में यह तो हो कि तुम्हारी बेटी तुम्हारी वारिस बने और मैं अपने बाप का विर्सा न पाऊं। इस पर हज़रत अबू बकर रोने लगे, और मिंबर से नीचे उतर आये और हज़रते फ़ातिमा को दस्तावेज़ लिख दी। इतने में हज़रत उमर आए और पूछा कि यह क्या है। हज़रत अबू बकर ने कहा कि मैं ने हज़रते फ़ातिमा के लिये मीरास का नविश्ता लिख दिया है कि जो उन्हें उन के बाप की तरफ़ से पहुंचती है। हज़रत उमर ने कहा कि फिर मुसलमानों पर क्या सर्फ़ करोगे। जब कि अरब तुम से जंग के लिये आमादा हैं, और यह कह कर हज़रत उमर ने यह तहरीर चाक कर ड़ाली।

इस तर्ज़े अमल को देखने के बाद हर साहबे बसीरत ब आसानी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि यह रिवायत खुद साख्ता और गलत है और सिर्फ़ फ़दक पर तसर्रुफ़ हासिल करने के लिये गढ़ ली गई थी। चुनांचे जनाबे सौयिदा ने उसे तसलीम करने से इन्कार कर दिया और इस तरह अपने ग़मो ग़ुस्से का इज़हार किया कि हज़रते अबू बकर व उमर के बारे में वसीयत फरमा दी कि यह दोनों उन के नमाज़े जनाज़ा में शरीक न हों। जनाबे सौयिदा की इस नाराज़गी को जज़बात पर महमुल करते हुए उस की अहमियत को कम करना किसी सहीह जज़बे की बिना पर नहीं है। क्यों कि अगर यह नाराज़गी जज़बात के मातहत होती तो अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) हज़रते ज़हरा (अ0 स0) की इस बे महल नाराज़गी को रोकते। मगर कोई तारीख यह नहीं बताती कि जनाबे अमीर (अ0 स0) ने इस नाराज़गी को बे महल समझा हो, और फिर आप की नाराज़गी ज़ाती रंजीश और जज़बात के नतीजे में हो कैसे सकती थी जब कि इन की खुशनूदी ऐने मंशाए इलाही के मुताबिक होती थी। चुनांचे पैगमबरे अकरम (स0) का यह इर्शाद इस का शाहीद हैः---

ऐ फ़ातिमा अल्लाह तुम्हारे ग़ज़ब से ग़ज़बनाक और तुम्हारी खुशनूदी से खुशनूद होता है।

                 

मकतूब (पत्र) – 46.

एक आलिम के नामः---

तुम उन लोगों में से हो जिन से दीन के क़ियाम में मदद लेता हूं, और गुनहगारों की निख़वत तोड़ता हूं, और ख़तरनाक़ सर्हदों की हिफ़ाज़त करता हूं, पेश आने वाली मुहिम में अल्लाह से मदद मांगो। (रईयत के बारे में) सख्ती के साथ कुछ नर्मी की आमेज़िश (मिश्रण) किये रहो। जहां तक नर्मी मुनासिब हो नर्मी बरतो, और जब सख्ती के बग़ैर कोई चारा न हो, तो सख्ती करो। रईयत से खुश खुल्की और कुशादा रुई से पेश आओ। उन से अपना रवैया नर्म रखो। और कनख़ियों और नज़र भर कर देखने और इशारा और सलाम करने में बराबरी करो ताकि बड़े लोग तुम से बे राह रवी की तवक्को न रखें, और कमज़ोर तुम्हारे इंसाफ़ से मायूस न हों। वस्सलाम।

वसीयत – 47.

जब आप को अबने मुलजिम लअनहुल्लाह ज़र्बत लगा चुका तो आप ने हसन और हुसैन अलैहिमुस्सलाम से फरमायाः---

मैं तुम दोनों को वसीयत करता हूं कि अल्लाह से डरते रहना, दुनिया के ख़्वाहिशमन्द न होना, अगरचे वह तुम्हारे पीछे लगे और दुनिया की किसी ऐसी चीज़ पर न कुढ़ना जो तुम से रोक ली जाय। जो कहना हक़ के लिये कहना, और जो करना सवाब के लिये करना। ज़ालिम के दुशमन और मज़लूम के मददगार बने रहना।

मैं तुम को, अपनी तमाम औलाद को, अपने कुंबे को, और जिन तक मेरा यह नविश्ता पहुंचे सब को, वसीयत करता हूं कि अल्लाह से डरते रहना। अपने मुआमलात दुरुस्त और आपस के तअल्लुक़ात सुलझाए रखना, क्यों कि मैं ने तुम्हारे नान रसूल लुल्लाह (स0) को फ़रमाते सुना है कि आपस की कशिदगीयों को मिटाना आम नमाज़ रोज़े से अफ़ज़ल है। देखो यतीमों के बारे में अल्लाह से डरते रहना, उन के कामो दहन के लिये फ़ाक़े की नौबत न आए, और तुम्हारी मौजूदगी मैं वह तबाह व बर्बाद न हो जायें। अपने हमसायों के बारे में अल्लाह से डरते रहना क्यों कि उन के बारे में तुम्हारे पैगमबर (स0) ने बराबर हिदायत की है और आप इस हद तक उन के बारे में सिफ़ारिश करते रहे कि हम लोगों को यह गुमान होने लगा कि आप उन्हें भी विर्सा दिलायेंगे। कुरआन के बारे में अल्लाह से डरते रहना ऐसा न हो कि दूसरे उस पर अमल करने में तुम पर सब्क़त ले जायें। नमाज़ के बारे में अल्लाह से डरते रहना क्यों कि वह तुम्हारे दीन का सुतून है। अपने पर्वरदिगार के घर के बारे में बारे में अल्लाह से डरते रहना उसे जीते जी ख़ाली न छोड़ना क्यों कि अगर वह जीते जी ख़ाली छोड़ दिया गया तो फिर (अज़ाब) से फुर्सत न पाओगे। जान, माल और ज़बान से राहे खुदा में जिहाद करने के बारे में अल्लाह को न भूलना, और तुम को लाज़िम है कि आपस में मेल मिलाप रखना और एक दूसरे की इनाअत करना, और खबरदार एक दूसरे की तरफ़ से पीठ फेरने और तअल्लुक़ात तोड़ने से परहेज़ करना। नेकी का हुक्म देने और बुराई से मनअ करने से भी कभी हाथ न उठाना वर्ना बद किरदार तुम पर मुसल्लत हो जायेंगे। फिर दुआ मांगोगे तो क़बूल न होगी।

(फिर इर्शाद फरमाया) ऐ अब्दुल मुत्तलिब के बेटो। ऐसा न होने पाए कि तुम, अमीरुल मोमिनीन क़त्ल हो गए, अमीरुल मोमिनन क़त्ल हो गए, के नारे लगाते हुए मुसलमानों के खून से होली खेलना शुरुउ कर दो।

देखो, मेरे बदले में सिर्फ़ मेरा क़ातिल ही क़त्ल किया जाए, और देखो जब मैं इस ज़र्ब से मर जाऊं तो इस ज़र्ब के बदले में एक ही ज़र्ब लगाना, और उस शख्स के हाथ पैर न काटना, क्यों कि मैं ने रसूलुल्लाह (स0) को फरमाते हुए सुना है कि खबरदार किसी के हाथ पैर न काटो अगरचे वह काटने वाला कुत्ता ही हो।

मकतूब (पत्र) – 48.

मुआविया इबने अबी सुफ़यान के नामः---

याद रखो सर्कशी और दरोग़ गोई इन्सान को दीन व दुनिया में रुसवा कर देती है और नुक्ता चीनी करने वाले के सामने उस की ख़ामियां खोल देती है। तुम जानते हो कि जिस चीज़ का हाथ से जाना ही तय है, उसे तुम पा नहीं सकते। बहुत से लोगों ने बग़ैर किसी हक़ के किसी मक्सद को चाहा और मंशए इलाही के खिलाफ़ ताविलें करने लगे, तो अल्लाह ने उन्हें झुटला दिया। लिहाज़ा तुम भी उस दीन से डरो जिस में वही शख्स खुस होगा जिस ने अपने अअमाल के नतीजे को बेहतर बना लिया हो, और वह शख्स नादिम व शर्मसार होगा जिस ने अपनी बागड़ोर शैतान को थमा दी और उस के हाथ से उसे न छीनना चाहा, और तुम ने हमैं कुरआन के फ़ैसले की तरफ़ दअवत दी, हालां कि तुम कुरआन के अहल नहीं थे तो हम ने तुम्हारी आवाज़ पर लब्बैक़ नहीं कही, बल्कि कुरआन के हुक्म पर लब्बैक कही। वस्सलाम।

मकतूब (पत्र) – 49.

मुआविया के नामः---

दुनिया आख़िरत से रु गर्दां कर देने वाली है। और जब दुनिया दार इस से थोड़ा बहुत कुछ पा लेता है तो वह उस के लिये अपनी हिर्स व शेफ्तगी के दरवाज़े खोल देती है, और यह नहीं होता कि जितनी दौलत मिल गई उस पर इकतिफ़ा करे, और जो हाथ नहीं आया उस से बे नियाज़ रहे। हालां कि नतीजे में जो कुछ जमअ किया है उस से जुदाई और जो कुछ बन्दोबस्त किया है उस की शिकस्त लाज़िमी है और गुज़श्ता हालात से इबरत हासिल करो, तो बाक़ी उम्र की हिफ़ाज़त कर सकोगे। वस्सलाम।

मकतूब (पत्र) – 50.

सरदाराने लशकर के नामः---

खुदा के बन्दे अली अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) का ख़त छावनियों के सालारों की तरफ़--- हाकिम का फ़र्ज़ है कि जिस बर्तरी को उस ने पाया है और जिस फ़ारिग़ुल बाली की मंज़िल पर पहुंचा है, वह उस के रवैये में, जो रिआया के साथ है, तब्दीली पैदा करे। बल्कि अल्लाह ने जो नेमत उस के नसीब में की है वह उसे बन्दगाने खुदा से नज़दीकी और अपने भाइयों से हमदर्दी में इज़ाफ़ा ही का बाइस हो। हां मुझ पर तुम्हारा यह भी हक़ है कि जंग के अलावा कोई राज़ तुम से पर्दे में न रखूं और हुक्मे शरई के सिवा दूसरे उमूर में तुम्हारी राय मशविरे से पहलू तही न करुं और उसे अंजाम तक पहुंचाए बग़ैर दम न लूं, और यह कि हक़ में तुम मेरे नज़दीक़ सब बराबर समझे जाओ। जब मेरा बर्ताव यह हो तो तुम पर अल्लाह के एहसान का शुक्र लाज़िम है और मेरी इताअत भी और यह कि किसी पुकार पर क़दम पीछे न हटाओ, और नेक कामों में कोताही न करो, और हक़ तक पहुंचने के लिये सख्तियों का मुक़ाबला करो। और अगर तुम इस रवैये पर बरक़रार न रहो तो फिर तुम में से बेराह हो जाने वालों से ज़ियादा कोई मेरी नज़र में ज़लील न होगा, और इस बारे में मुझ से कोई रिवायत न पायेगा। तुम अपने (मातहत) सरदारों से यही अहदो पैमान लो, और अपनी तरफ़ से भी ऐसे हुक़ूक़ की पेश कश करो कि जिस से अल्लाह तुम्हारे मुआमलात को सुलझा दे। वस्सलाम।