वालिये हीत कुमैल इबने ज़ियादे नख़ई के नाम, जिस में उन के उस तर्ज़े अमल पर ना पसन्दीदगी का इज़हार फ़रमाया है कि जब दुशमन की फ़ौजें लूट मार के क़स्द (इरादे) से उन के इलाक़े से ग़ुज़रीं तो उन्हों ने उन्हें रोका नहीं।
आदमी का उस काम को नज़र अन्दाज़ कर देना कि जो उस सिपुर्द किया गया है, और जो काम उस के बजाय दूसरों के मुतअल्लिक (संम्बन्धित) है उस में ख़्वामख्वाह को (अकारण) हा घुसना एक खुली हुई कमज़ोरी और तबाह कुन फ़िक्र (विनाशकारी चिन्तन) है। तुम्हारा अहले कर्किसा पर धावा बोल देना और अपनी सरहदों को खाली छोड़ देना, जब कि वहां कोई हिफाज़त करने वाला है न दुशमन की सिपाह को रोकने वाला है, एक परिशान ख़याली का मुज़ाहरा था। इस तरह तुम अपने दुशमनों के लिये पुल बन गए, जो तुम्हारे दोस्तों पर हमला आवर होने का इरादा रखते हों, इस आलम में कि न तुम्हारे बाज़ुओं में तवानाई है, न तुम्हारा कुछ रोबो दबदबा है, न तुम दुशमन का रास्ता रोकने वाले हो, न उस का ज़ोर तोड़ने वाले हो, न अपने शहर वालों के काम आने वाले हो, और न अपने अमीर की तरफ़ से कोई काम अंजाम देने वाले हो।
जब मालिके अश्तर को मिस्र का हाक़िम तजवीज़ फ़रमाया (शासक प्रस्तावित किया) तो उन के हाथ अहले मिस्र को भेजाः-
अल्लाह सुब्हानहू ने मोहम्मद (स0) को तमाम जहानों का (उन बद अअमालियों की पादाश से) डराने वाला और तमाम रसूलों पर गवाह बना कर भेजा। फिर जब रसूलुल्लाह (स0) की वफ़ात (मृत्यु) हो गई तो उन के बाद मुसलमानों ने ख़िलाफ़त के बारे में खींचा तानी शुरु कर दी। इस मौक़े पर ब खुदा मुझे कभी तसव्वर भी नही हुआ था और न मेरे दिल में यह ख़्याल ग़ुज़रा था कि (पैगमबर (स0) के बाद अरब ख़िलाफ़त का रुख उन के अहलेबैत से मोड देंगे और न यह कि उन के बाद उसे मुझ से हटा देंगे। मगर एक दम मेरे सामने यह मंज़र आये, कि लोग फ़लां शख्स के हाथ पर बैअत कर ने के लिये दौड़ पड़े। इन हालात में मैं ने अपना हाथ रोके रखा, यहां तक कि मैं ने देखा कि मुर्तद होने वाले इसलाम से मुर्तद हो कर मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के दीन को मिटा ड़ालने की दअवत दे रहे हैं। अब मैं ड़रा कि अगर कोई रख़ना या ख़राबी देखते हुये मैं इस लाम और अहले इसलाम की मदद न करंगा तो यह मेरे लिये इस से बढ़ कर मुसीबत होगी जितनी यह मुसीबत, कि तुम्हारी यग हुकूमत मेरे हाथ से चली जाय जो थोड़े दिनों का असासा है। इस में की हर चूज़ ज़ायल हो जायेगी। इस तरह जैसे सराब बे हक़ीक़त साबित होता है या जिस तरह बदली छट जाती है। चुनांचे मैं इन बिदअतों के हुजूम में उठ खड़ा हुआ, यहां तक कि बातिल दब कर फ़ना हो गया, और महफ़ूज़ हो कर तबाही से बच गया।
इसी ख़त का एक हिस्सा यह हैः---
बखुदा अगर में तने तन्हा उन के मुक़ाबले के लिये निकलूं और ज़मीन की सारी वुसअतें उन से छलक रही हों, जब भी मैं पर्वा न करुं और न परिशान हूं। और मैं, जिस गुमराही में वह हैं, और जिस हिदायत पर मैं हूं, उस के मुतअल्लिक पूरी बसीरत और अपने पर्वरदिगार के फ़ज़्लो करम से यक़ीन रखता हूं, और मैं अल्लाह के हुज़ूर में पहुंचने का मुशताक और उस के हुस्त्रे सवाब के लिये दामने उम्मीद फ़ैलाए हुए मुंतज़िर हूं। मगर मुझे इस की फिक़्र है कि इस क़ौम पर हुकूमत करें बदमग्ज़ और बद किर्दार लोग, और वह अल्लाह के माल को अपनी इमलाक और उस के बन्दों को अपना गुलाम बना लें, नेकों से बर सरे पैकार रहें, और बद किर्दारों को अपने जत्थे में रखेंष क्यों कि उन में बाअज़ का मुशाहिदा तुम्हें हो चुका है कि उस ने तुम्हारे अन्दर शराब नोशी की और इसलामी हद के सिलसिले में उसे कोड़े लगाए गए, और उन में ऐसे शख्स भी है, जो उस वक्त तक इसलाम नहीं लाया जब तक उसे आमदनियां नहीं हुई। अगर उस की फ़िक्र मुझे न होती तो मैं इस तरह तुम्हें (जिहाद पर) आमादा न करता, न इस तरह झिंझोड़ता, न तुम्हें इकट्ठा करने और शौक दिलाने की कोशिश करता। बल्कि तुम सरताबी और कोताही करते तो तुम को तुम्हारे हाल पर छोड़ देता।
क्या तुम देखते नहीं कि तुम्हारे शहरों के हुदूद (सीमायें) रोज़ बरोज़, कम होते जा रहे हैं, और तुम्हारे मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। तुम्हारी मिल्कीयतें छीन रही हैं और तुम्हारे शहरों पर चढ़ाइयां हो रही हैं। खुदा तुम पर रहम करे, अपने दुशमनों से लड़ने के लिये चल पड़ो, और सुस्त हो कर ज़मीन से चिमटे न रहो। वर्ना याद रखो कि ज़ुल्मो सितम सहते रहोगे और ज़िल्लत में पड़े रहोगे और तुम्हारा हिस्सा निहायत पस्त होगा। सुनो जंग आज़मा होशियार व बेदार रहता है, और जो सो जाता है दुशमन उस से ग़ाफ़िल हो कर सोया नहीं करता। वस्सलाम।
पैगमबरे अकरम (स0) ने अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के बारे में, यह मेरा भाई, मेरा वसी, और तुम लोगों में मेरा जानशीन है, और हिज्जतुल विदाअ से पलटते हुए ग़दीरे ख़ुम के मक़ाम पर, मन कुन्तो मौलाहो फ़हाज़ा अलीयुन मौलाह, फरमा कर नियाबत व जानशीनी (प्रतिनिधित्व एवं स्थानापत्र) का मसअला तय कर दिया था, जिस के बाद किसी जदीद इन्तिखाब (नवीन चयन) की ज़रुरत ही न थी और न यह तसव्वुर व ख्याल ही किया जा सकता था कि अहले मदीना इन्तिखाब की ज़रुरत महसूस करेंगे। मगर कुछ इक्तिदार परस्त (सत्ता के पुजारी) अफ़राद (ब्यक्तियों) ने इस वाज़ेह इर्शादात (स्पष्ट कथनों) को इस तरह नज़र अन्दाज़ कर दिया है कि गोया उन के कान उन से कभी आशना ही न हुए थे, और इन्तिखाब (चुनाव) को इस दर्जा ज़रुरी समझा कि तजहीज़ो तकफ़ीने पैगम्बर (स0) को छोड़ छाड कर सक़ीफ़ए बनी साइदा में जमा हो गए, और जमहूरियत (लोक तंत्र) के नाम पर हज़रत अबू बकर को ख़लीफ़ा मुन्तखब (चयनित) कर लिया। यह मौक़ा (अवसर) अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के लिये इन्तिहाई कश मकश का था क्यों कि एक तरफ़ कुछ मफ़ाद परस्त (स्वार्थी) लोग यह चाह रहे थे कि आप शमशीर बक़फ़ (हाथ में तलवार ले कर) मैदान में उतर आयें और दूसरी तरफ़ आप यह देख रहे थे कि वह अरब जो इसलाम की ताक़त से मरऊब हो कर इसलाम लाए थे, मुर्तद होते जा रहे हैं, और मुसैलिए कज्ज़ाब व तलाहा अबने ख़्वैलद क़बीलों के क़बीलों को गुमराही की तरफ़ झोंक रहे हैं। इन हालात में अगर खाना जंगी (गृह युद्घ) शुरु हो गई और मुसलमानों की तलवारें मुसलमानों के मुकाबले में उतर आईं तो इरतिदाद व निफ़ाक़ की क़ुव्वतें मिल कर इसलाम को सफहए हस्ती से नाबूद कर देगीं, इस लिये आप ने जंग पर वक्ती सुकूत (सामयिक मौन) को तर्जीह (प्राय़मिकता) दी और वहदते इसलामी (इसलामी संगठन) को बर्करार रखने के लिये तलवार का सहारा लेने के बजाय ख़ामोशी के साथ एहतिजाज (मौन रह कर असंतोष ब्यक्त करना) काफ़ी समझा। क्यों कि आप को ज़ाहिरी इक्तिदार (प्रत्यक्ष सत्ता) इतना अज़ीज़ (प्रिय) न था जितनी मिल्लत (जनता) की फलाहो बहबूद (हित एवं कल्याण) अज़ीज़ थी और मुनाफ़िक़ीन की रेशा दवानियों (उपद्रवों) के सद्दे बाब (रोक थाम) और फितना पर्दाज़ों के अज़ायम को नाकाम (विफ़ल) बनाने के लिये इस के सिवा चारा न था कि आप अपने हक़ से दस्त बर्दार हो कर जंग को हवा न दें, और यह बक़ाए मिल्लत व इसलाम के सिलसिले में इतना बड़ा कारनामा है जिस का तमाम फ़िरके इसलामिया को एतिराफ़ है।
यहां शराब नोशी करने वाले से मुराद (तात्पर्य) वलीद इबने अकबा है, जिस ने कूफ़े में शराब पी और नशे की हालत में नमाज़ पढ़ाई, और इस की पादाश में उसे कोड़े लगाए गए। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने अबुल फरजे इसफ़हानी से नक़्ल किया हैः---
वलीद बदकार (कुकर्मी) और शराब ख़्वार था। उस ने कूफ़े में शराब पी, और मस्जिदे जामे में लोगों को सुब्ह की नमाज़ दो रकअत के बजाय चार रकअत पढ़ा दी फिर उन की तरफ़ मुतवज्जह हुआ, और कहा कि अगर तुम चाहो तो कुछ और पढ़ा दूं। (शर्हे इबने अबिल हदीद जिल्द 4 सफहा 193) और माली फ़ायदे की वजह से ईमान लाने वाले से मुराद मुआविया है कि जो सिर्फ़ दुनियावी फ़ायदे से अपना रिशता इसलाम से जोड़े हुए था।
आमिले कूफ़ा अबू मूसा अशअरी के नाम कि जब हज़रत को ख़बर पहुंची कि वह अहले कूफ़ा को जंग के सिलसिले में, जब कि आप ने उन्हें बुलाया था, राक रहा है।
खुदा के बन्दे अली अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) की तरफ़ से अब्दुल्लाह इबने क़ैस (अबू मूसा) के नाम। मुझे तुम्हारी तरफ़ से ऐसी बात की ख़बर मिली है कि जो तुम्हारे हक़ में भी हो सकती और तुम्हारे ख़िलाफ़ भी पड़ सकती है। जब मेरा क़ासिद (पत्रवाहक) तुम्हारे पास पहुंचे तो (जिहाद के लिये) दामन गर्दान लो, कमर कस लो, और अपने बिल से बाहर निकल आओ, और अपने साथ वालों को भी दअवत दो (आमंत्रित करो) और अगर हक़ तुम्हारे नज़दीक साबित है तो खड़े हो जाओ। खुदा की क़सम तुम घेर घार कर लाए जाओगे ख़्वाह (चाहे) कहीं भी हो, और छोड़े नहीं जाओगे यहां तक कि तुम अपनी दो अमली की वजह से बौख़ला उठोगे, और तुम्हारा सारा ताह पौद बिखर जायेगा। यहां तक कि तुम्हें आराम से बैठना भी नसीब न होगा, और सामने से भी उसी तरह ड़रोगे जैसे अपने पीछे से डरते हो। जैसा तुम ने समझ रखा है यह आसान बात नहीं है बल्कि यह एक बड़ी मुसीबत है जिस के ऊंट पर बहर हाल सवार होना पड़ेगा, और उस की दुशवारियों (कठिनाइयों) को हमवार (समतल) किया जायेगा और उस पहाड़ के सर किया जायेगा। लिहाज़ा अपनी अक़्ल को ठिकाने पर लाओ, अपने हालात पर काबू हासिल करो, और अपना हज़ व नसीब लेने की कोशिश करो और अगर यह नागवार है तो उधर दफ़ान हो जहां न तुम्हारे लिये आवभगत है न तुम्हारे लिये छुटकारे की कोई सूरत। अब यही मुनासिब (उचित) है कि तुम्हें बे ज़रुरत (अनावश्यक) समझ कर नज़र अन्दाज़ किया जाय। मज़े से सोये पड़े रहो, कोई यह भी न पूछेगा कि फ़लां है कहां। खुदा की क़सम यह हक परस्त का सहीह इक़दाम है। और हमें बे दीनों के करतूतों की कोई पर्वा नहीं हो सकती। वस्सलाम।
जब अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने अहले बसरा की फितना अंगेज़ीयों को दबाने के लिये क़दम उठाना चाहा तो इमामे हसन (अ0 स0) के हाथ यह मकतूब (प्रपत्र) आमिले कूफ़ा अबू मूसा अशअरी के नाम भेजा। जिस में उस की दो रंगी और मुतज़ाद रविश (परस्पर विरोधी चाल) पर उसे तहदीद व सरज़निश (फटकार व चेतावनी) करते हुए उसे आमदए जिहाद करना चाहा। क्यों कि वह एक तरफ़ तो यह कहता था कि अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) इमामे बरहक़ हैं और उन की बैअत सहीह है और दूसरी तरफ़ यह कहता था कि उन के साथ हो कर अहले क़िबला से जंग करना दुरुस्त नहीं है बल्कि यह एक फितना है और इस फितने से अलग थलग रहना चाहिये। चुनांचे इस मुतज़ाद क़ौल की तरफ़ हज़रत ने इशारा किया है। मतलब यह है कि वह हज़रत को इमामे बरहक़ समझता है तो फिर उन के साथ हो कर दुशमन से लड़ना क्यों गलत है और अगर आप के साथ हो कर जंग करना सहीह नहीं है तो आप को इमामे बरहक़ मानने के क्या मअनी।
बहर हाल उस के जंग से रोकने और क़दम क़दम पर रुकावटें ख़डी करने के बावजूद अहले कूफ़ा जूक दर जूक़ उठ खड़े हुए और हज़रत की सिपाह में शामिल हो कर जंग में पूरा हिस्सा लिया और अहले बसरा को ऐसी शिकस्त दी कि वह फिर फितना अगंज़ी के लिये खड़े होने की जुरअत न कर सके।
मुआविया के जवाब में : ----
जैसा कि तुम ने लिखा है (इसलाम से पहले) हमारे और तुम्हारे दरमियान इत्तिफ़ाक़ व इत्तिहाद था। लेकिन कल हम और तुम में तफ़रिक़ा (अन्तर) यह पड़ा कि हम ईमान लाए और तुम ने कुफ़्र इख्तियार किया, और आज यह कि हम हक़ पर मज़बूती से जमे हुए हैं और तुम फितना (अपद्रवों) में पड़ गए हो, और तुम में से जो भी इसलाम लाया था, वह मजबूरी से, और वह उस वक्त जब तमाम, अशराफ़े अरब (अरब के सज्जन लोग) इसलाम ला कर रसूलुल्लाह (स0) के साथ हो चुके थे। तुम ने (अपने ख़त) में ज़िक्र किया है कि मैं ने तलहा व ज़ुबैर को क़त्ल किया और आइशा को घर से निकाला और (मदीना छोड कर) कूफ़ा व बसरा में क़ियाम किया। मगर यह वह बातें हैं जिन का तुम से कोई वासिता नहीं, न तुम पर कोई ज़ियादती है और न तुम से उज्र ख़्वाही की इस में ज़रुरत है।
और तुम ने यह भी ज़िक्र किया है कि तुम मुहाजिरिन व अन्सार के जत्थे के साथ मुख से मिलने (मुक़ाबले) को निकलने वाले हो। लेकिन हिजरत का दरवाज़ा तो उसी दिन बन्द हो गया था जिस दिन तुम्हारा भाई गिरफ़्तार कर लिया गया था। अगर जंग की तुम्हें इतनी ही जल्दी है तो ज़रा दम लो, हो सकता है कि मैं खुद ही तुम से मिलने आ जाऊं। और यह ठीक होगा, इस एतिबार से कि अल्लाह ने तुम्हें सज़ा देने के लिये मुझे मुक़र्रर किया होगा, और अगर तुम मुझ से मिलने आए, तो वह होगा जो शायरे बनी असद ने कहा हैः---
वह मौसमे गर्मा की ऐसी हवाओं का सामना कर रहे हैं जो नशेबों और चट्टानों में ुन पर संग रेज़ों की बारिश कर रही हैं।
मेरे हाथ में वही तलवार है जिस की ग़ज़न्द (चोट) से तुम्हारे नाना, तुम्हारे मामूं, और तुम्हारे भाई को एक ही जगह पहुंचा चुका हूं। खुदा की क़सम तुम, जैसा कि मैं जानता हूं, ऐसे हो जिस के दिल पर तहें चढ़ी हुआ हैं, और जिस की अक़्ल बहुत महदूद (सीमित) है। तुम्हारे बारे में यही कहना ज़ियादा मुनासिब (उचित) है, कि तुम एक ऐसा सीढ़ी पर चढ़ गए हो जहां पर से तुम्हारे लिये बुरा मंज़र (दृश्य) पेशे नज़र (दृटिगत) हो सकता है, जिस में तुम्हारा बुरा ही होगा, भला नहीं होगा। क्यों कि ग़ैर की ख़ोई हुई चीज़ की जुस्तजू (खोज) में हो, और दूसरे के चौपाए चुराने लगे हो, और ऐसी चीज़ के लिये हाथ पैर मार रहे हो जिस के न तुम अहल (पात्र) हो और न तुम्हारा उस से कोई बुनियादी (मौलिक) लगाव है। तुम्हारे क़ौल व फ़ेल (कथन व कर्म) में क़ितना फ़र्क (अन्तर) है, और तुम्हें अपने चचाओं और मामूओं, से कितनी क़रीबी शहाबत (निकट की
मुखाकृति) है जिन्हें बदबख्ती (दुर्भाग्य) व आर्ज़ूए, बातिल (मिथ्याकांछा) ने मोहम्मद (स0) के इन्कार पर उभारा था, जिस के अंजाम में वह क़त्ल हो हो कर गिरे। और जैसा कि तुम्हें मअलूम है, न किसी बला को वह टाल सके और न अपने महफ़ूज़ एहाता (सुरक्षित बाड़े) की हिफ़ाज़त (सुरक्षा) कर सके, उन तलवारों की मार से जिन से मैदाने वग़ा (रणक्षेत्र) खाली नहीं होता और जिन से सुस्ती का ग़ुज़र नहीं।
और तुम ने उसमान के क़ातिलों के बारे में बहुत कुछ लिखा है, तो पहले मेरी बैअत में दाख़िल हो जाओ जिस में सब दाख़िल हो चुके हैं, फिर मेरी अदालत में उन लोगों पर मुकद्दमा दायर करना, तो मैं क़िताबे खुदा की रु से (आधार पर) तुम्हारा और उन का फ़ैसला कर दूंगा। लेकिन यह जो तुम चाह रहे हो तो यह वह धोका है जो बच्चे को दूध से रोकने के लिये दिया जाता है। सलाम हो उस पर जो उस का अहल (पात्र) हो।
मुआविया ने अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को एक ख़त तहरीर किया (पत्र) लिखा जिस में बाहमी यक जेहती व इत्तिफाक़ (परस्पर एकता व सहमति) का तज़किरा करने के बाद आप पर तलहा व ज़ुबैर के क़त्ल और उम्मुल मोमिनीन आइशा को घर से बे घर करने का इल्ज़ाम लगाया और मदीने को चोड़ कर कूफ़े को मर्क़ज़ (केन्द्र) क़रार देने पर एतिराज़ (आपत्ति) किया और आख़िर में जंग की धमकी देते हुए लिखा कि मैं अन्सार व मुहाजिरीन के जत्थे के साख जंग के लिये निकलने वाला हूं। हज़रत ने इस के जवाब में यह मकतूब (प्रपत्र) उस के नाम लिखा। जिस में उस ने दअवए इत्तिहाद व यक जेहती पर तबसिरा (टिप्पणी) करते हुए फरमाते हैं कि यह माना कि हम में और तुम में इत्तिहाद होगा, मगर इसलाम के बाद हम में और तुम में ऐसी ख़लीज (खाड़ी) हायल (अवरुद्घ) हो चुकी है जिसे पाटा नहीं जा सकता, और ऐसा तफ़रिक़ा (भेद) पड़ गया है जिसे मिटाया नहीं जा सकता। वह इस तरह कि हम ने पैगमबर (स0) की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए इसलाम में सब्क़त (पहल) की और तुम्हारी हालत यह थी कि तुम उस वक्त कुफ़्र व जिहालत में पड़े हुए थे जिस से हमारी और तुम्हारी राहें अलग अलग हो गईं। अलबत्ता जब इसलाम के क़दम जम गए और अशराफ़े अरब हल्क़ए इसलाम में आ चुके तो तुम ने मजबूरी के आलम में इताअत क़बूल कर ली और चेहरों पर इसलाम की नक़ाब ड़ाल कर अपनी जानों का तहफ़्फ़ुज़ (रक्षा) कर लिया, मगर दर पर्दा उस की बुनियाद को खोखला करने के लिये फितने (उपद्रवों) को हवा देते रहे। और हम ने चूंकि रज़ा व रग़बत (स्वेच्छा) से इसलाम क़बूल (स्वीकार) किया था इस लिये राहे हक़ पर जमे रहे और किसी मर्हले (मोर्चे) पर हमारे सबाते क़दम में जुंबिश न आई। लिहाज़ा तुम्हारा इसलाम लाना भी हमें तुम्हारा हमनवा (सहयोगी) न बना सका।
अब रहा उस का यह इल्ज़ाम (आरोप) कि हिजरत ने तलहा व ज़ुबैर के क़त्ल का सरो सामान किया, तो अगर इस इल्ज़ाम (आरोप) को सहीह तस्लीम कर लिया जाए तो क्या यह हक़ीक़त (वास्तविकता) नहीं कि उन लोगों ने हज़रत के खिलाफ़ (विरुद्घ) खुल्लम खुल्ला बग़ावत (विद्रोह) की थी और बैअत को तोड़ कर जंग को उठ ख़ड़े हुये थे। लिहाज़ा अगर वह बग़ावत के सिलसिले में मारे गए तो उन का खून रायगां समझा जायेगा और क़त्ल करने वाले पर इल्ज़ाम (आरोप) न आयद होगा क्यों कि इमामे बरहक़ के खिलाफ़ बगावत करने वाले की सज़ा (दण्ड) क़त्ल और उस से जंग व क़िताल बिला शुब्हा (निस्सन्देह) जायज़ (उचित) है। और अस्ल वाक़िआ यह है कि इस इल्ज़ाम की कोई अस्लीयत ही नहीं है। क्यों कि अपने ही गुरोह के एक फ़र्द (ब्यक्ति) के हाथ से मारे गए थे। चुनांचे साहबे इस्तीआब लिखते हैं किः---
मर्वान ने तलहा को तीर से मारा और फिर आबान इबने उसमान से कहा कि हम ने तुम्हारे बाप के बअज़ (कदाचित) क़ातिलों (हत्यारों) से बदला ले कर तुम्हें इस मुहिम (अभियान) से सुबुक दोश (हल्का) कर दिया है।
और ज़ुबैर बसरा के पलटते हुए अस्सबाअ में अमर इबने जरमूज़ के हाथ से क़त्ल हुए थे जिस में अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) का कोई ईमा न था। इसी तरह हज़रत आइशा उस बाग़ी (विद्रोही) गुरोह की सरबराह (संचालक) बन कर खुद से (स्वयं ही) निकल ख़ड़ी हुईं थीं, और अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने उन्हें मुतअद्दिद दफ़आ (अनेकों बार) समझाया कि वह अपने मौकिफ़ (पक्ष) को पहचानें और हुदूदेकार (कार्य सीमा) से क़दम बाहर न निकालें। मगर उन पर इन बातों का कुछ असर न हुआ।
इसी नौईयत (प्रकार) की यह नुक्ता चीनी (टीका टिप्पणी) है कि हज़रत ने मदीना को छोड़ कर कूफ़ा को इस लिये दारुल ख़िलाफ़ा (शासन, केन्द्र राजधानी) बनाया कि मदीना बुरों को अपने से अलग कर देता है और गन्दगी को छांट देता है। इस का जवाब तो बस इतना ही है कि वह खुद भी तो मदीना को छोड़ कर हमेशा शाम ही को अपना मर्क़ज़ बनाए रहा। तो इस सूरत (दशा) में उसे हज़रत के मर्कज़ बदलने (केन्द्र परिवर्तन) पर क्या हक्के एतिराज़ (आपत्ति का अधिकार) पहुंचता है। अगर हज़रत ने मदीना को चेड़ा तो उस की वजह वह शोरिशे (उपद्रव) थीं, जो हर तरफ़ से उठ खड़ी हुई थीं, जिन की रोक थाम के लिये ऐसे ही मक़ाम (स्थान) को मर्कज़ (केन्द्र) क़रार देना मुफ़ीद (लाभ प्रद) साबित हो सकता था जहां से हर वक्त फ़ौजी इमदाद (सैनिक सहायता) हासिल की जा सके।
चुनांचे अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने जंगे जमल के मौक़े (अवसर) पर देख लिया था कि अहले कूफ़ा (कूफ़ा वासियों) की ख़ासी बड़ी अकसरीयत (संख्या) ने आप के सथ तआवुन (सहयोग) किया है। लिहाज़ा उसे फ़ौजी चावनी बना कर बड़ी आसानी से दुशमन का दिफ़ाअ (शत्रु से प्रतिरक्षा) किया जा सकता है। और मदीना न फ़ौजी कुमक के एतिबार से और न रसद पहुंचाने के लिहाज़ से मुफ़ीद (लाभ प्रद) था।
आख़िर में मुआविया की यह धमकी की वह मुहाजिरीन व अन्सार के गुरोह के साथ निकलने वाला है, तो हज़रत ने उस का बड़े लतीफ़ पैराये (रसीले स्वर) में यह जवाब (उत्तर) दिया है कि अब तुम मुहाजिर कहां से लाओगे जब कि हिजरत का दरवाज़ा उसी दिन बन्द हो गया था जब तुम्हारा भाई यज़ीद इबने अबी सुफ़यान असीर (गिरफ्तार) हुआ था, और यह फ़त्हे मक्का के मौक़े पर गिरफ़्तार हुआ था, और फ़त्हे मक्क़ा के बाद हिजरत का कोई सवाल पैदा ही नहीं होता कि कोई मुहाजिर कहला सके। चुनांचे पैगमबरे अकरम (स0) का इर्शाद है कि, फ़त्हे मक्का के बाद हिजरत नहीं है।
मुआविया के नामः----
अब इस का वक्त है कि रौशन हक़ीक़तों (उज्जवल यथार्थ) को देख कर उन से फ़ायदा उठा लो, मगर तुम तो बातिल दअवा करने, किज़्बो फ़रेब (मिथ्याजाल) में लोगों को झोंकने, अपनी हैसियत के बलन्द (ऊंची) चीज़ का इद्दिआ (दअवा) करने, और ममनूआ चिज़ों (वर्जित वस्तुओं) को हथिया लेने में अपने बुज़ुर्गों (पूर्वजों) के मसलक (मार्ग) पर चल रहे हो। यह इस लिये कि हक़ (यथार्थ) से भागना चाहते हो। और उन चीज़ों से जो गोश्त और खून से भी ज़ियादा तुम से चिमटी हुई हैं इन्कार करना चाहते हो। तो हक़ (यथार्थ) को छोड़ने के बाद खुली हुई गुमराही (पथ भ्रष्टता) और बयाने हक़ीक़त (सत्य क़थन) के नज़र अन्दाज़ किये जाने के बाद सरासर फ़रेबकारी (धोकाधड़ी) के सिवा और है ही क्या। लिहाज़ा शुब्हात (भ्रमों) और उन की तल्बीसकारी (छल कपटों) से बचो। क्यों कि फितने (उपद्रव) मुद्दत से (बहुत दिनों) से दामन लटकाए हुए हैं और उन के अंधेरों ने आंखों को चौंधिया रखा है।
तुम्हारा ख़त (पत्र) मुझे मिला है, ऐसा कि जिस में क़िस्म क़िस्म (भांति भांति) की बेजोड बातें हैं, जिन से सुल्ह व अम्न (संधि व शांति) के मक़सद (उद्देश्य) को कोई तक़वीयत (शक्ति) नहीं पहुंच सकती। और उस में ऐसे ख़ुराफ़ात (अर्नगल) हैं कि जिन के ताने बाने को इल्म की दानाई (ज्ञान की समझ) से नहीं बुना। तुम तो इन बातों की वजह से ऐसे हो गए हो जैसे कोई दलदल में धंसता जा रहा हो और अंधे कुयें में हाथ पैर मार रहा हो। तुम तो अपने को ऊंचा कर के ऐसी बलन्दी बाम और गुम कर्दा निशां चोटा तक ले गए हो कि उक़ाब भी वहां पर नहीं मार सकता, और सितारए उयूक़ बलन्दी से टक्कर ले रही हैं।
हाशा व कल्ला यह कहां हो सकता है कि तुम मेरे बा इक़तिदार होने के बाद मुसलमानों के हल्लो अक्द के मालिक बनो, या मैं तुम्हें किसी एक शख्स पर भी हुकूमत का पर्वाना या दस्तावेज़ लिख दूं। ख़ैर, अब के सही। अपने नफ्स को बचाओ और उस की देख भाल करो क्यों कि अगर तुम ने उस वक्त तक कोताही की कि जब खुदा के बन्दे तुम्हारे मुक़ाबले में उठ खड़े हुए, फिर तुम्हारी सारी राहें बन्द हो जायेंगी और जो सूरत तुम से आज क़बूल (स्वीकार) की जा सकती है उस वक्त क़बूल न की जायेगी। वस्सलाम।
जंगे ख़्वारिज के इख़तिताम (ख़वारिजी युद्घ की समाप्ति) पर मुआविया ने अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को एक ख़त (पत्र) तहरीर किया जिस में हसबे आदत (आदत के अनुसार) इल्ज़ाम तराशी (आरोफित करने) से काम लिया। उस के जवाब में हज़रत ने यह मक़तूब (पत्र) उस के नाम लिखा। इस में जिस रौशन हक़ीकत (उज्जवल यथार्थ) की तरफ़ मुआविया को मुतवज्जह करना चाहा है वह यही ख़वारिज की जंग और उस में आप की नुमायां कामयाबी (स्पष्ट सफ.लता) है। क्यों कि यह जंग पैगमबर (स0) की पेशीनगोई (भविष्यवाणीं) के नतीजे (फलस्वरुप) वाक़े हुई थी। और खुद हज़रत भी जंग के वाक़े होने से क़ब्ल (पूर्व) फरमा चुके थे कि मुझे असहाबे जमल व सिफ्फीन के अलावा एक और गुरोह से भी लड़ना है और वह मारिक़ीन (दीन, धर्म से फिर जाने वाले ख़वारिज) का है। लिहाज़ा इस जंग का वेक़े होना और पैगमबर (स0) की पेशीनगोई के मुताबिक ज़ुस सादिया का मारा जाना हज़रत की सदाक़त (सत्यता) की एक रौशन दलील था। ्गर मुआविया शख्सी नुमूद (व्यक्तिगत दिखावा) और मुल्क गीरी की हवस में मुब्तला न होता और अपने असलाफ़ (पूर्वजों) अबू सुफियान व अत्बा की तरह हक़ (यथार्थ) से चश्म पोशी न करता (आंख न चुराता) तो वह हक़ को देख कर राह पर आ सकता था। मगर वह अपनी उफ़्तादे तबअ (प्रक़ति) से मजबूर हो कर हमेशा हक्क़ो सदाक़त से पहलू बचाता रहा और इन इर्शादात (कथनों) से जो हज़रत कू इमामत व विसायत पर रौशनी ड़लते थे आंख बन्द किये पड़ा रहा। हालां कि हिज्जतुल विदाए (अन्तिम हज) में शरीक होने की वजह से पैगम्बर (स0) का क़ौल मन कुन्तो मौलाहो फ़हाज़ा अलीयुन मौलाह (जिस का मैं मौला हूं उस के यह अली मौला हैं) और ग़ज़वए तबूक के मौक़े पर मौजूद होने की वजह से या अली मुझ को तुम से वही निस्बत है जो मूसा से हारुन को थी, उस से छिपा न था लेकिन इस के बावजूद वह हक पोशी व बातिल कोशी में ज़िन्दगी के लम्हात बसर करता रहा। यह किसी ग़लत फ़हमी का नतीज़ा न था बल्कि सिर्फ़ हसबे इक़तिदार (सत्ता की हवस) उसे हक़ व इन्साफ़ के कुचलने और दबाने पर उभारती रही।
अब्दुल्लाह इबने अब्बास के नाम (यह ख़त इस से पहले दूसरी इबारत में दर्ज किया जा चुका है)।---
बन्दा (मनुष्य) कभी उस शय को पा कर खुश होने लगता है जो उस के हाथसे जाने वाली थी ही नहीं, और ऐसी चीज़ (वस्तु) की वजह से रंजीदा (दुख़ी) होता है जो उसे मिलने वाली ही न थी। ल्हाज़डा लज़्ज़त का हुसूल (स्वाद की प्राप्ति) और जज़बए इन्तिकाम (बदले की भावना) को फ़रो (समाप्त) करना ही तुम्हारी नज़रों में दुनिया की बेहतरीन नेमत हो, बल्कि बातिल को मिटाना और हक़ को ज़िन्दा करना हो। और तुम्हारी खुशी उस ज़खीरे (भण्डार) पर होना चाहिये जो तुम ने आख़िरत (परलोक) के लिये फ़राहम किया है। और तुम्हारा रंज (क्षोभ) उस सर्माए (पूंजी) पर होना चाहिये जिसे सहीह मसरफ़ (उचित उपयोग) में सर्फ़ (उपयोग) किये बग़ैर छोड़ रहे हो। और तुम्हें फिक़्र मौत के बाद ही होना चाहिये।
वालिये मक्का कुस्म इबने अब्बास के नामः---
लोगों के लिये हज के क़ियाम (स्थापना) का सरो सामान करो, और अल्लाह के याद गार दिनों की याद दिलाओ, और लोगों के लिये सुब्हो शाम अपनी नशिस्त (बैठक) क़रार दो (निश्चित करो) मसअला पूछने वाले को मसअला बताओ, जाहिल को तअलिम (अज्ञान को शिक्षा) दो, और आलिम (विद्घान) से तबादलए ख़यालात (विचार विमर्श) करो। और देखो लोगों तक पैग़ाम (संदेश) पहुंचाने के लिये तुम्हारी ज़बान के सिवा कोई सफ़ीर (दूत) न होना चाहिये, और तुम्हारे चेहरे के सिवा कोई तुम्हारा दरबान (द्घार पाल) न होना चाहिये, और किसी ज़रुरत मन्द को अपनी मुलाक़ात से महरुम (वंचित) न करना। इस लिये कि पहली दफ़अ अगर हाजत (आवश्यकता) तुम्हारे दरवाज़ों से नाकाम (विफल) वापस कर दी गई तो बाद में उसे पूरा कर देने से भी तुम्हारी तअरीफ़ (प्रशंसा) न होगी।
और देखो तुम्हारे पास जो अल्लाह का माल जमअ हो उसे अपनी तरफ़ (अपने क्षेत्र) के अयाल दारों (आश्रितों) और भूके नंगों तक पहुंचाओ, इस लिहाज़ (ध्यान) के साथ कि वह इस्तेहक़ाक़ और एहितियाज (अधिकार और आवश्यकता) को मर्क़ज़ों तक पहुंचे, और जो उस से बच रहे उसे हमारी तरफ़ (ओर) भेज दो ताकि हम उसे उन लोगों में बांटेंजो हमारे गिर्द (चोरों ओर) जमअ हों।
और मक्का वालों को हुक्म दो कि बाहर से आ कर ठगरने वालों से किराया न लों, क्यों कि अल्लाह सुब्हानहू फ़रमाता है कि इस आक़िफ़ (ठहरने वाले) और बादी (चलने फिरने वाले) यकसां (एक समान) हैं। आक़िफ़ वह है जो उस में मुक़ीम हो (निवास करता हो) और बादी वह है जो बाहर से हज के लिये आया हो। खुदा वन्दे आलम हमें और तुम्हें पसन्दीदा कामों की तौफ़ीक़ दे। वस्सलाम।
अपने ज़मानए खिलाफ़त से क़ब्ल (पूर्व) सल्माने फ़ारसी रहमतुल्लाह के नाम तहरीर फ़रमाया थाः---
दुनिया की मिसाल सांप की सी है जो छूने में नर्म मअलूम होता है मगर उस का ज़हर मोहलिक (घातक) होता है। लिहाज़ा जो चीज़ें (वस्तुएं) दुनिया में तुम्हें अच्छी मअलूम हों उन से मूंह मोड़े रहना क्यों कि उन में से तुम्हारे साथ जाने वाली चीज़ें बहुत कम हैं। उस की फ़िकरों (चिन्ताओं) को अपने से दूर रखो, क्यों कि तुम्हें उस से जुदा (पृथक) हो जाने और उस से हालात (परिस्थितियों) के पलटा खाने का यक़ीन (विश्वास) है। और जिस वक्त उस से बहुत ज़ियादा वाबस्तगी (आबद्घता) महसूस करो उसी वक्त उस से बहुत ज़ियादा परिशान हो, क्यों कि जब भी दुनिया दार उस की मसर्रत (प्रसत्रता) पर मुतमइन (सन्तुष्ट) हो जाता है तो वह उसे सख्तियों (कठिनाइयों) में झोंक देती है, या उस के उन्स (प्रेम) पर भरोसा कर लेता है तो वह उस के उन्स (प्रेम) को वहशत (ब्याकुलता) व हिरास (चिन्ता) से बदल देती है।
हारिसे हम्दान के पासः---
कुरआन की रस्सी को मज़बूती (दृढ़ता) से थाम लो, उस से पन्दो नसीहत हासिल (शिक्षा एवं उपदेश ग्रहण) करो। उस के हलाल को हलाल और हराम को हराम समझो। और गुज़श्ता हक़ (विगत यथार्थ) की बातों की तस्दीक़ (पुष्टि) करो, और गुज़री हुई (बीती) दुनियां से बाक़ी दुनिया (शेष संसार) के बारे में इबरत ङासिल (शिक्षा ग्रहण) करो, क्यों कि उस का हर दौर (प्रत्येक युग) दूसरे दौर (युग) से मिलता जुलता है। और उस का आख़िर भी उस के अव्वल से जा मिलने वाला है। और यह दुनिया सब की सब (पूर्ण रुपेण) फ़ना (नष्ट) होने वाली और बिछड़ जाने वाली है। देखो अल्लाह की अज़मत (श्रेष्ठता) के पेशे नज़र (दृष्टिगत) हक़ बात के अलावा उस के नाम की क़सम न खाओ। मौत और मौत के बाद की मंज़िल को बहुत ज़ियादा याद करो, मौत के तलब गार न बनो मगर क़ाबिले इत्मीनान (संतोष प्रद) शरायत (प्रतिबन्धों) के साथ। और हर उस काम से बचो जो आदमी अपने लिये पसन्द करता हो और आम मुसलमानों (साधारण मुसलमानों) के लिये उसे ना पसन्द करता हो। हर उस काम से दूर रहो जो चोरी छिपे किया जा सकता हो, मगर अलानिया करने में शर्म दामनगीर होती हो। और हर उस फ़ैल (कर्म) से किनारा कश (पृथक) हो कि जब उस के मुर्तकिब (कर्ता) होने वाले से जवाब तलब किया जाये तो वह खुद भी उसे बुरा क़रार दें, या मअज़िरत (क्षमा याचना) करने की ज़रुरत पड़े। अपनी इज़्ज़त व आबरु (मान मर्यादा) को चेमीगोइयों (काना फूंसियों) के तीरों का निशाना न बनाओ। जो सुनो उसे लोगों को वाक़िए की हैसियत से बयान करते न फिरो, कि झूटा क़रार पाने के लिये इतना ही काफ़ी होगा। और लोगों को उन की हर बात में झूटलाने भी न लगो, कि यह पूरी पूरी जिहालत है। गुस्से को ज़ब्त करो इख़तियार व इक़तिदार (अधिकार एवं सत्ता) के होते हुए अफवो दर गुज़र (क्षमा) से काम लो, और गुस्से के वक्त बुर्दबारी (शालीनता) से काम लो, और दौलत व इकतिदार (धन सत्ता) के होते हुए मुआफ़ करो तो अंजाम की कामयाबी तुम्हारे हाथ रहेगी, और अल्लाह ने जो नेमतें तुम्हें बख्शी हैं उन पर शुक्र बजा लाते हुए उन की बहबूदी (कल्याण) चाहो, और उस की दी हुई नेमतों में से किसी नेमत को ज़ाए (नष्ट) न करो, और उस ने जे इनआमात (पुरस्कार) तुम्हें बख्शे हैं उन का असर (प्रभाव) तुम पर ज़ाहिर (प्रकट) होना चाहिये।
और याद रखो कि ईमान वालों में सब से अफ़ज़ल (श्रेष्ठ) वह है जो अपनी तरफ़ से अपने अहलो अयाल (परिवारजनों) और माल की तरफ़ से ख़ैरात करे, क्यों कि तुम आख़िरत (परलोक) के लिये जो कुछ भी भेज दोगे वह ज़ख़ीरा (भण्डार) बन कर तुम्हारे लिये महफूज़ (सुरक्षित) रहेगा, और जो पीछे छोड़ जाओगे उस से दूसरे फ़ायदा उठायेंगे। और उस आदमी की सोहबत (संगत) से बचो जिस की राय कमज़ोर और अफआल (कृत्य) बुरे हों, क्यों कि आदमी का उस के साथी पर क़ियास किया जाता है। बड़े शहरों में रहाइश (निवास) रखो क्यों कि वह मुसलमानों के इजतिमाई मर्क़ज़ (संयुक्त केन्द्र) होते हैं। ग़लत और बेवफ़ाई की जगहों और उन मक़ामात (स्थानों) से कि जहां अल्लाह की इताअत (आज्ञा पालन) में मददगारों (सहयोगियों) की कमी हो पर्हेज़ करो। और सिर्फ़ मतलब की बातों में अपनी फिक्र पैमाई को महदूद रखो, और बाज़ारी अड़्ड़ों में उठने बैठने से अलग रहो, क्यों कि यह शैतान की बैठकें और फितनों की आमाजगाहें (उपद्रवों के केन्द्र) होती हैं, और जो लोग तुम से पस्त हैसियत को हैं उन्हीं को ज़ियादा देखा करो, क्यों कि यह तुम्हारे लिये शुक्र का एक रास्ता है। जुमअ के दिन नमाज़ में हाज़िर हुए बग़ैर सफ़र (यात्रा) न करना, मगर यह कि खुदा की राह में जिहाद के लिये जाना हो या कोई मअजूरी (असमर्थता) दरपेश हो, और अपने तमाम कामों में अल्लाह की इताअत करो, क्यों कि अल्लाह की इताअत दूसरी चीज़ों पर मुक़द्दम है। अपने नफ्स को बहाने कर के इबादत की राह पर लाओ, और उस के साथ नर्म रवैया रखो, दबाव से काम न लो। जब दूसरी फिक्रों से फ़ारिगुल बाल (निवृत्त) और चौचाल (चंचल) हो उस वक्त उस से इबादत का काम लो। मगर जो वाजिब इबादतें हैं उन की बात दूसरी है उन्हें तो बहर हाल अदा करना है और वक्त पर बजा लाना है। और देखो ऐसा न हो कि मौत तुम पर आ पड़े इस हाल में कि तुम अपने पर्वरदिगार से भागे हुए दुनिया तलबी में लगे हए हो। और फ़ासिकों (खुल्लम खुल्ला पाप करने वालों) की सोहबत (संगत) से बचे रहना, क्यों कि बुराई बुराई की तरफ़ बढ़ा करती है। और अल्लाह की अज़मत व तौक़ीर (श्रेष्ठता व सम्मान) का ख्याल रखो और उस के दोस्तों से दोस्ती करो, और गुस्से से ड़रो, क्यों कि यह शैतान के लशकरों (सेनाओं) में से एक बड़ा लशकर है। वस्सलाम।
वालिये मदीना सहल इबने हुनैफ़ अन्सारी के नामः- (मदीने के कुछ बाशिन्दों के बारे में जो मुआविया से जा कर मिल गए थेः---
मुझे मअलूम हुआ है कि तुम्हारे यहां के कुछ लोग चुपके चुपके मुआविया की तरफ़ खिसक रहे हैं। तुम उस तअदाद (संख्या) पर, कि जो निकल गई है, और उस कुमक पर कि जो जाती रही है, ज़रा अफ़्सोस न करो। उन के गुमराह हो जाने और तुम्हारे कलक व अन्दोह (दुख व क्षोभ) से छुटकारा पाने के लिये यही बहुत है कि वह हक़ व हिदायत की तरफ़ से भाग रहे हैं और जिहालत व गुमराही की तरफ़ दौड़ रहे हैं। यह दुनिया दार हैं जो दुनिया की तरफ़ झुक रहे हैं और उसी की तरफ़ तेज़ी से लपक़ रहे हैं। उन्हों ने अदल (न्याय) को पहचाना, देखा, सुना और महफ़ूज़ किया और इसे खूब समझ लिया कि यहां हक़ के एतिबार से सब बराबर समझे जाते हैं। लिहाज़ा वह उधर भाग खड़े हुए जहां जंबादारी और तख्सीस (पक्षपात और विशेषता) बरती जाती है।
खुदा की क़सम वह ज़ुल्म से नहीं भागे और अदल (न्याय) से जा कर नहीं चिमटे, और हम उम्मीदवार हैं कि अल्लाह इस मुआमले की हर सख्ती को आसान और इस संगलाख ज़मीन को (पथरीली भूमि) को हमारे लिये हमवार (समतल) करेगा। वस्सलाम।